गाँव की महिलाओं का बदलता जीवन

Changing life of village women
फोटो: सुधीर कुमार
-ज्योति

हर दिन का उगना उससे है,
उसके ही बाद, जागे ये सूरज
हर साँझ का मिलना, उससे है
उसके ही साथी हैं ये चंदा और सूरज (Changing life of village women)

मैं बात कर रही हूँ गाँव की उन महिलाओं की जिनका सवेरा सूरज के उगने से पहले ही शुरू हो जाता है। हर साँझ के ढलने के बाद ही वे अपने घर वापस लौट पाती हैं। इन्हीं चाँद और सूरज को अपने समय का आधार मानकर बिना थके, बिना रुके हर काम को मुस्कुराते हुए पूरा करती हैं। शाम को उसी मुस्कुराहट के साथ घर वापस लौटतीं हैं। घर के हर सदस्य को उसकी आदत लगी होती है कि बिना उसको देखे तथा उसके बारे में पूछे किसी को भी चैन आना मुश्किल होता है।

वैसे तो स्त्रियों का पूरा जीवन ही औरों पर समर्पित होता है। इसमें यह महत्वपूर्ण नहीं है कि स्त्री गाँव की है या शहर की। पूरी दिनचर्या में मुश्किल से कुछ घंटे स्वयं के होते होंगे। उसके अलावा पूरा समय परिवार की देखरेख तथा अन्य कामों के लिए वे खर्च करती हैं। गाँव की स्त्रियों की दिनचर्या शहर की स्त्रियों से काफी भिन्न है पर यदि हम आज के समय की बात करें तो गाँव की महिलाओं की दिनचर्या तथा रहन-सहन भी शहर की महिलाओं से मेल खाता है।

गाँव की एक महिला का जीवन बहुत ही परिश्रमी होता है। अपने परिवार में उसे सबका खयाल रखने के साथ उन पशुओं का भी खयाल रखना होता है जिन्हें वे अपने बच्चों से कम नहीं समझतीं। उनके लिए चारे की व्यवस्था, बिछावन हेतु पत्तों की व्यवस्था, उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखना, लकड़ी-चारे हेतु जंगल जाना आदि। सभी व्यवस्थाएँ उसे करनी होती हैं। यदि हम आज के समय में ये दृश्य देखना चाहें तो पहले की अपेक्षा हमें बहुत कम देखने को मिलेगा। अब पशुपालन का रुझान गाँवों में काफी कम दिखाई देता है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि गाँव स्तर पर अब पढ़ी-लिखी महिलाओं को कोई कमी नहीं रही है। हालांकि साक्षरता का पशुपालन से बहुत बड़ा सम्बन्ध तो नहीं होना चाहिए परन्तु गाँव में ऐसा दिख रहा है कि जो स्त्रियाँ साक्षर हैं या पढ़-लिख रही हैं उनका रुझान पशुपालन की ओर नहीं दिखाई देता। या यूँ कहूँ कि अपेक्षाकृत बहुत कम दिखाई देता है।

यही हालात अब खेती के भी हैं। इस विषय पर तो पुरुष तथा महिला दोनों की यही राय-सी बन चुकी है। अधिकतर लोग अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का आधार लेकर गाँव-घर, खेती सब छोड़कर यहाँ तक कि कई लोग तो बूढ़े माता-पिता तक को छोड़कर शहरों की तरफ पलायन करते हैं और एक प्रदूषित और संकुचित जीवन जी रहे हैं। गाँव में रहकर अपने बच्चों को प्रकृति से जुड़े रहने की शिक्षा अब गिने-चुने लोग ही देना चाहते हैं।

मैं इस पलायन वाली बात को महिलाओं के विषय में इसलिए भी लिख रही हूँ क्योंकि कहीं न कहीं परिवार के पुरुष के पलायन के साथ जब स्त्रियाँ भी पलायन करती हैं तो उनके पीछे ज्यादातर मामलों में स्त्रियों का ही आग्रह होता है। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मैंने अपने ही आस-पास तथा घर में ऐसे मामले देखे हैं, जहाँ स्वयं स्त्रियाँ कृषि, खेती-बाड़ी, पशुपालन से बचकर पलायन करना चाहती हैं और कर भी रही हैं। शहर की स्त्रियों की ही तरह वे भी अपना जीवन तथा रहन-सहन बनाना चाह रही हैं। इन सबके बीच ही गाँव की महिलाओं का एक ऐसा तबका जो चालीस से साठ वर्ष की आयु वर्ग का है, उनके अन्दर पलायन की बात अब असर नहीं करती है। वे शहर के बंद कमरे के जीवन को पसंद नहीं करतीं। शहर की भीड़ से बचना चाहती हैं और पशुपालन, कृषि करके ही अपना जीवन-यापन कर रही हैं।

तकनीकी की बात कहें तो गाँव की महिला के जीवन में भी तकनीकी साधनों का प्रवेश हो चुका है। जिन चीजों के बारे में महिलाएँ कभी सुना भी नहीं करती थीं, आज उनका प्रयोग वे अपनी रोजमर्रा के जीवन में करती हैं। महिलाओं की रसोई से लेकर पूरे घर में तकनीकी उपकरणों का प्रयोग हो रहा है। रसोई में महिलाएँ मिक्सी का उपयोग करती हैं जबकि सिलबट्टा आज भी गाँव के हर घर में मौजूद है। पानी को शुद्ध रखने के लिए फिल्टर का उपयोग हो रहा है। ताँबे की गगरी अब हर घर में नहीं मिलती। ओखल से तो जैसे महिलाओं ने नाता ही तोड़ दिया हो। शायद ही कुछ घरों में हमें ओखल देखने को मिले। चूल्हे की जगह अब हर घर में गैस ने ले ली है। अपने व्यक्तिगत जीवन में अब महिलाएँ किसी खबर को  सुनने के लिए या किसी से बात करने के लिए दूसरों पर आश्रित नहीं रहतीं। आज गाँव के हर घर की महिला के पास मोबाइल उपलब्ध है, जो उनके जीवन को काफी सरल तो बनाता है लेकिन कहीं न कहीं वे खुद से दूर होती चली जा रही हैं। जो महिलाएँ कभी घास काटते समय या खेतों में काम करते समय अपनी आवाज में गुनगुनाती थीं, वे अब मोबाइल के गानों पर आश्रित हैं। अब गाँव की महिलाओं को चिट्ठियों का इंतजार नहीं करना पड़ता।

मुझे याद है, कुछ साल पहले तक  बारिश होने पर गाँव की महिलाएँ एक साथ इकट्ठा होकर किसी एक के घर मिलकर चुए के लड्डू बनाती थीं और साथ मिलकर खूब गप्पें मारा करती थीं। शादी-बारातों मे झोड़ा-चाँचरी किया करती थीं और हम बच्चे झोड़े-चाँचरी के उस घेरे में इकट्ठा होकर उनकी नकल किया करते थे। पर आज के समय में मेरे गाँव में तो झोड़ा-चाँचरी देखने को मिलती  ही नहीं, पर हाँ दूर-दराज के गाँवों में आज भी ये देखने को मिलता है। पर बारिश में लोग अब अपने घर में रजाइयों में घुसकर फोन चलाना पसंद करते हैं। यहाँ तक की महिलाएँ भी। हालांकि जो महिलाएँ स्मार्ट फोन चलाने में सक्षम हैं उन्हें इनसे काफी मदद भी मिल रही है। अपनी प्रतिभा निखारने का उन्हें एक नया अवसर प्राप्त हुआ है।

पहनावे की दृष्टि से भी महिलाओं का जीवन बहुत परिवर्तित हो गया है। पुराने परंपरागत कपड़ों की अपेक्षा महिलाएँ सलवार सूटपहनना ज्यादा पसंद करती हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि परंपरागत कपड़े लुप्त हो गये हैं। पर हाँ यह जरूर कहा जा सकता है कि उनकी मौजूदगी बहुत कम मात्रा में रह गई है और वह भी उनमें जो पुरानी पीढ़ी की महिलाएँ हैं।

अब ग्राम स्तर पर भी बेटियों की शिक्षा पर उतना ही जोर दिया जाता है जितना कि एक परिवार में बेटे की शिक्षा पर दिया जाता है और इसका श्रेय भी मैं महिलाओं को देना चाहूंगी क्योंकि जिस भी परिवार की महिला अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हैं, उस परिवार में लड़का-लड़की का भेद आज बहुत ही कम देखा जाता है और कई परिवारों में तो बिलकुल भी नहीं देखा जाता। गाँव स्तर पर अब अधिकतर महिलाएँ अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हैं। साथ ही अन्याय का विरोध करने में भी वे पीछे नहीं हटती हैं। अब गाँव के पुरुषों के बीच महिलाओं की आवाज भी सुनाई देती है।

एक समय में गाँव स्तर पर यह मान्यता दिखाई देती थी कि महिलाओं को हर समय अपने से रिश्ते में बड़े पुरुष के सामने सर में पल्लू या घूंघट डालना होता था। यह पुरुषों के सम्मान का प्रतीक माना जाता था। पर आज के समय में यह मान्यता खण्डित होती दिखाई पड़ रही है और यह बात कहीं न कहीं सही भी है कि मन में पलने वाले सम्मान को घूँघट से तोलना उचित नहीं। यह मात्र दिखावा ही होगा। मान्यताओं तथा रूढ़िवादिता के खण्डन का काम भी महिलाएँ गाँव स्तर पर कर रही हैं।

मात्र रसोई को ही अपनी जिम्मेदारी न मानकर हस्तकला, सिलाई इत्यादि के साथ दफ्तर के कामों तक गाँव की महिलाएँ पहुँच चुकी हैं और इसके लिए उन्हें परिवार से पूरा प्रोत्साहन मिल रहा है। घर की र्आिथक जरूरत को पूरा करने में महिलाएँ भी पूरा योगदान गाँवों में दे रही हैं। कहीं-कहीं इस बात को देखकर मुझे बड़ी चिन्ता होती है कि स्वयं महिलाएँ ही अपने बच्चों से अपनी भाषा चाहे वह क्षेत्रीय हो या मातृभाषा हो, उनसे बात करना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं समझती। उनका ज्यादा प्रयास यही रहता है कि उनके बच्चे अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखें। वैसे इस मामले में स्त्री-पुरुष दोनों की यही राय बनी हुई है पर महिलाओं के विषय में यह बात करना इसलिए भी जरूरी है कि वही बच्चों के साथ ज्यादा समय व्यतीत करती हैं। मेरी यह बात अंग्रेजी भाषा के खिलाफ नहीं है पर क्षेत्रीय या मातृभाषा के प्रति एक बच्चे के अन्दर लगाव पैदा करना प्रत्येक महिला का कर्तव्य है और भाषा के महत्व को समझना, उसकी गरिमा को बनाये रखना प्रत्येक को आना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं कि वे बच्चों को अन्य भाषाओं के खिलाफ करें बल्कि सभी भाषाओं की जानकारी हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए और साथ ही अपनी क्षेत्रीय व मातृभाषा के महत्व को बच्चों को अच्छे से समझायें ताकि आगे जाकर वे इसके वजूद को बचा सकें।

गाँव की महिला का जीवन आज हर तरह से बदलता दिखाई पड़ रहा है। जिसकी कुछ हद तक जरूरत भी है और कुछ चीजों में अनावश्यक भी। पर परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है जिसे प्रत्येक व्यक्ति को स्वीकार करना होता है। इन सभी बदलावों को देखते हुए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि गाँव और शहर की महिला में अन्तर कर पाना कुछ मामलों में कठिन हो सकता है। इन सब बातों के बावजूद गाँव की महिला के प्रेम, सद्व्यवहार, ममत्व तथा अपनेपन में कोई बदलाव नहीं आया है। वह हमेशा से ही आकर्षक था और आज भी है। (Changing life of village women)