परिवार की बदलती भूमिका

अपर्णा जोशी

आधुनिकता, पूँजीवाद तथा उपभोक्तावाद के आगमन के साथ ही पहले से कहीं अधिक संख्या में महिलाओं ने घरेलू भूमिका व घरों की चहारदीवारी को छोड़कर वैतनिक कार्यों की ओर रुख किया है। वर्तमान में वैश्विक कामकाजी जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं हैं, इसके बावजूद वर्ल्ड फादर्स रिपोर्ट 2015 यह संकेत देती है कि आज भी घरेलू अवैतनिक कार्यों में पुरुषों की सहभागिता में कोई बृद्धि नहीं हुई है, जबकि वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के आगमन से हुए सामाजिक परिवर्तनों के कारण घरेलू देखभाल संबंधी जिम्मेदारियाँ पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गयी हैं। इसके परिणामस्वरूप कामकाजी महिलाएँ दोहरी भूमिकाओं में वैतनिक तथा घरेलू अवैतनिक कार्यों का बोझ उठा रही हैं।

यूनाइटेड नेशन्स की परिभाषा के अनुसार अवैतनिक देखरेख के कार्य में घरेलू कार्य (भोजन बनाना, सफाई, कपड़ों की धुलाई, पानी एवं ईंधन की व्यवस्था करना, परिवार के सदस्यों की प्रत्यक्ष देखभाल (जिसमें बच्चे, वृद्घ, दिव्यांग, एवं स्वस्थ वयस्क शामिल हैं) महिलाओं की जिम्मेदारी है तथा जिसके प्रतिकर में समुदाय-समाज द्वारा कोई वित्तीय प्रतिदान नहीं किया जाता। रिपोर्ट के अनुसार महिलाएँ पुरुषों की तुलना में 2.5 गुना अधिक अवैतनिक कार्य करती हैं, जबकि भारतीय महिलाएँ पुरुषों से 10 गुना अधिक अवैतनिक कार्य करती हैं। पितृसत्तात्मक विचारधारा का तर्क है कि पुरुष घर के बाहर आर्थिक गतिविधियों में उतने ही घंटे वैतनिक श्रम करते हैं जितने घंटे महिलाएँ घरेलू अवैतनिक कार्य में श्रम करती हैं। दोनों ही परिवार के लिए अपने-अपने श्रम से योगदान करते हैं तो यह बहस ही निरर्थक है। किन्तु सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंतर दोनों की श्रम गतिविधियों में यह है कि वैतनिक श्रम को समाज में अधिक महत्व एवं सामाजिक मूल्य दिया जाता है तथा अवैतनिक श्रम को मूल्यहीन तथा निम्न प्रस्थिति का समझा जाता है। इसी कारण 14-16 घण्टे घरेलू श्रम व देखभाल का कार्य करने वाली महिलाएँ यह पूछने पर कि वे क्या करतीं हैं, उत्तर देती हैं कि वे कुछ नहीं करती, जबकि अपनी पारिवारिक भूमिकाओं एवं देखभाल की जिम्मेदारियों के कारण इन्हीं महिलाओं की पहुँच शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, सामाजिक संपर्क, खेल एवं वित्तीय संसाधनों तक हो ही नहीं पाती।

ये परिस्थितियाँ महिलाओं को घरेलू जिम्मेदारियों के बोझ के कारण व्यावसायिक क्षेत्र से पीछे खींचती हैं तथा इन्ही कारणों से उन्हें आय तथा अन्य असमानताओं-विषमताओं का सामना करना पड़ता है, जबकि ये ही परिस्थितियाँ पुरुषों के लिए प्रतिस्पर्धात्मक व्यावसायिक अनुकूलता में परिवर्तित होती हैं, क्योंकि उनके ऊपर घरेलू कार्यों व देखभाल संबंधी कार्यों की जिम्मेदारी नहीं होती।

अट्ठाईस देशों में किये गए एक अध्ययन के निष्कर्ष से ज्ञात हुआ है कि बच्चों के जन्म के उपरांत 30- 39 वर्ष आयु वर्ग की 88 प्रतिशत महिलाओं ने अपनी आय में गिरावट महसूस की अथवा काम करने के अवसर में कमी का उल्लेख किया। निष्कर्षत: वास्तविक लैंगिक समानता तब तक संभव नहीं हो सकती जब तक घरेलू देखभाल की भूमिकाओं के निर्वहन में जिम्मेदारी की असमानता रहेगी। इस असमानता को पुरुषों द्वारा पहल करके देखभाल की जिम्मेदारी (बच्चों, बुजुर्गों, वयस्कों व दिव्यांगों) में समान सहभागिता द्वारा कम किया जा सकता है। सहभागी पितृत्व के द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक, स्वास्थ्य एवं आर्थिक लाभ राष्ट्रीय एवं पारिवारिक स्तर पर दिखाई देंगे।

विभिन्न अध्ययनों के आंकड़ो से ज्ञात होता है कि पुरुषों की पारिवारिक सहभागिता के अनेक सकारात्मक परिणाम देखे गए हैं, जैसे प्रसव के उपरांत माँ के स्वास्थ्य लाभ की दर में बृद्धि तथा प्रसवोत्तर अवसाद में कमी आना।  इसके अतिरिक्त  देखभाल में सहभागिता रखने वाले पिता का भावनात्मक संवाद व लगाव बच्चों व जीवनसाथी से सक्षम होने के कारण उनके अपनी पत्नी या बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार की सम्भावना भी कम हो जाती है। यह सहभागिता-पूर्ण परिवर्तन महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के अंतरपीढ़ी चक्र को तोड़ने में सहायक होता है क्योंकि अगली पीढ़ी के पुरुष सदस्य पिता के हिंसक व्यवहार को देखकर व अनुभव करते हुए बड़े नहीं होते।
(Changing in Family)

‘सहभागिता पितृत्व’ के अन्य सकारात्मक परिणामों में पुरुष एवं महिला दोनों के मानसिक एवं प्रजननात्मक स्वास्थ्य में सुधार, जीवनसाथियों के बीच बेहतर संवाद एवं सम्बन्ध तथा बच्चे के संज्ञानात्मक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव सम्मिलित है। अगर अर्थव्यवस्था का उदहारण लें तो सभी भारतीय महिलाओं के घर से बाहर कार्य करने पर भारत का सकल राष्ट्रीय उत्पाद 1.7 लाख डालर अधिक होगा।

‘सहभागी पितृत्व’ के इतने सकारात्मक एवं सशक्त परिणाम होने के बावजूद भी यह समाज में नियम न होकर अपवाद के तौर पर पाया जाता है क्योंकि इसके क्रियान्वयन की मुख्य बाधाएं निम्न हैं-

(अ) अधिकांश सामाजिक मानदंड इस विचार को पुष्ट एवं सुदृढ़  करते हैं कि परिवार की देखरेख की जिम्मेदारी प्राकृतिक रूप से महिलाओं के हिस्से में आती है।

(ब) आर्थिक एवं कार्य क्षेत्र की वास्तविकताएँ घरेलू निर्णयों को प्रभावित करती हैं तथा पारम्परिक श्रम विभाजन को सुदृढ़    करती हैं।

(स) नीतियों की देखरेख की जिम्मेदारियों का असमान वितरण करती हैं तथा इस आधार पर राज्य इन जिम्मेदारियों के लिए संरचनात्मक ढांचे में परिवर्तन पर विशेष ध्यान नहीं देता। एक सर्वेक्षण के अनुसार 85 प्रतिशत भारतीय पुरुष मानते हैं कि शिशु को स्नान करवाना, डायपर बदलना और भोजन करवाना माँ की जिम्मेदारी है। दूसरी ओर अधिकांश महिलाएँ यह स्वीकार करती हैं कि घर ही पारम्परिक रूप से एकमात्र स्थान है, जहाँ वे अपनी विशेषज्ञता के कारण कुछ शक्ति व सत्ता का अनुभव करती हैं। और इसी कारण इस भूमिका को छोड़ने की अनिच्छुक हैं।

इन संस्थापित सामाजिक मानकों के कारण यथास्थिति में एकाएक परिवर्तन नहीं किया जा सकता, लेकिन देखभाल सम्बंधित भूमिकाओं में पुरुषों की भूमिका को सार्वजनिक एवं नीतिगत बहस के केंद्र में लाकर एक पहल अवश्य की जा सकती है। नीतिगत परिवर्तनों में कार्य क्षेत्र के अंतर्गत पुरुषों की पितृ सुलभ-पैतृक जिम्मेदारियों के प्रति महिलाओं की मातृत्व संबंधी जिम्मेदारियों के समान नीति निर्धारित की जाये, इसके लिए नीतिगत परिवर्तनों की आवश्यकता होगी। पितृत्व अवकाश भावी पिताओं को मातृ एवं शिशु देखभाल का प्रशिक्षण तथा घरेलू कार्य के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक होगा।

इस प्रकार समाज की विचारधारा में परिवर्तन लाने के लिए नीति परिवर्तन एक सकारात्मक पहल होगी, परंतु यह सरल नहीं है। व्यक्तिगत सम्बन्ध एवं मानवीय संसाधन प्रबंधन दो क्षेत्र हैं जहाँ महिलाओं की विशेषज्ञता एवं वर्चस्व समाज में दिखाई देता है, लेकिन विसंगति यह है कि फिर भी महिलाएँ मानवीय संसाधन विभाग की प्रमुख बनकर समाज के बदलाव का नेतृत्व करती नहीं दिखाई देती, यद्यपि पितृत्व अवकाश से महिलाओं को सहायता एवं लाभ मिलता है, परंतु महिला बहुल कार्य क्षेत्रों एवं महिला नेतृत्व वाले क्षेत्रों ने भी अभी तक पितृत्व अवकाश पर अपनी नीतियों का खुलासा नहीं किया है। दूसरी ओर, यदि ये संगठन कर भी लें तो भारतीय समाज के बहुसंख्यक पिताओं पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि वे असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं तथा परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें लंबे समय तक परिवार को छोड़कर काम की खोज में जाना पड़ता है। अत: इस श्रेणी के पिताओं की शिशु के पालन-पोषण में भागीदारी किस प्रकार सुनिश्चित की जा सकती है।

वर्तमान नगरीय जीवनशैली में पिता अपने बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय व्यतीत कर पाने में असमर्थ हैं, क्योंकि भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का दबाव मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं से कहीं अधिक है। अत: अधिक आर्थिक उपार्जन के कारण भावनात्मक जुड़ाव का समय ही नहीं बचता। परिणामत: कुछ पिता अपराध बोध एवं डर भी अनुभव करते हैं कि वर्तमान प्रतिस्पर्धात्मक एवं उपभोक्तावादी वातावरण में किस प्रकार अपनी भावी पीढ़ी को मानवीय गुण दे पाएंगे।

पारंपरिक सूझ-बूझ व ज्ञान को आज आदिम व व्यर्थ समझकर नकार दिया जाता है, जिसमें शिशुओं का पालन पोषण मात्र जैविकीय माता-पिता का उत्तरदायित्व न होकर सामुदायिक जिम्मेदारी थी। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में भी पालन पोषण की जिम्मेदारी के लिए सामुदायिक संरचनात्मक सहयोग लैंगिक समानता स्थापित करने में एक सार्थक पहल हो सकती है। 
(Changing in Family)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika