नयार की लहरों का लेखा-जोखा मल्यो की डार

अनिल कार्की

स्मृतियाँ कैसे औजार बनती हैं यह बात गीता गैरोला की सद्य: प्रकाशित किताब मल्यो की डार से और स्पष्ट होती हंै। इस संग्रह में लोक के बदलने की घटना केवल एक रोमांचक घटना नहीं है बल्कि हृदय विदारक घटना है। यह किताब गुमनाम स्त्रियों, लोगों के हाड़ माँस, अस्थि, मज्जा का ही नहीं आत्मा और जनमन का इतिहास भी है। लोकजीवन में भाषा ही अपने आप में एक स्मृति कोष है। गीता गैरोला के लेखन में आये लोक बोली के शब्दों के बहाने बचपन के आँगन तक पहुँचा जा सकता है।

इतिहास व आस्था के दायरों में बने रहने के बावजूद भी स्मृति एक अलग तरह की मिथक हैं, जो घटित होने के बाद भी स्वरूप और दृष्टि के लिये तरसती रहती है। आगत समयों में वे अपने घटित होने के लम्बे अन्तराल में जब दृष्टि पाती हैं और समय का दबाव जब उसे देखने के लिये राजनैतिक पक्षधरता प्रदान करता है तो वह मल्यो की डार जैसे एक अलग दस्तावेज और अलग विधा का रास्ता अख्तियार कर लेती है, जो अपार संवेदना से भरे लोक के साथ ही शहरों के अजनबीपन को पूरी तरह व्यक्त करता है। अपनी खास वैचारिकी से और वर्तमान संन्दर्भ के साथ ही जीवन के गहरे जाकर चीजें छूने और उन्हे समझने की छटपटाहट का संग्रह है मल्यो की डार जिसका शिल्प और लय का प्रस्थान बिन्दु, अपार संवेदनाओं वाले मनुष्य और तकनीकी समय में मशीन बनते मनुष्य के साथ ही वर्तमान वैश्विकरण के अन्तरद्वंद्व से उपजा है।

यह किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहाँ जीवन में विचार है, विचार में जीवन नहीं, न अति स्त्रीवादी आग्रह और न ही मशीनी सिद्घान्त के प्रति जबरन मोहग्रस्तता। हाँ, यह जरूर है कि यह किताब एक खास किस्म की स्त्रियों के अन्तर्मन को पूरा उकेर कर सामने रख देती है। इधर कुमाऊँ की तरफ ब्राह्मण स्त्री का साहित्य में आया जो सबसे प्रभावी बिम्ब मेरे जेहन में उभर के आता है वह है गुरुवर शैलेश मटियानी की कहानी सुहागिन का, लेकिन मैं चकित हूँ कि सुहागिन के बाद अगर हमें कहीं फिर दुबारा से कोई इतना सघन प्रभावी चित्र और स्वानुभूत सत्य मिलता है तो वह है गीता गैरोला का संस्मरण घने कोहरे के बीच, बहुत गजब का संस्मरण है यह, जो धीरे-धीरे वर्ग का जातीय चरित्र खोल के सामने रख देता है। माई फूफू जैसी गुमनाम औरत के बहाने हम पहाड़ में स्त्री शोषण का कच्चा चिट्ठा पढ़ पाते हैं।

बच्चों के मोह मे फँसी माई कब जीजा के मोह जाल में उलझ गयी पता ही नहीं चला। जीजा को बच्चों की आया के साथ ही अपना दिल बहलाने के लिये एक खूबसूरत खिलौना मिल गया। इस रिश्ते को न तो जीजा ने कोई नाम दिया न माई के माईके वालों ने ही कोशिश की। जाने कितने जाड़े कितनी बरसातें निकल गईं। नयार में पता नहीं कितने बरसातों का पानी बह गया।

गीता ने पन्द्रह अगस्त के बहाने जहाँ आज के उथले राष्ट्रवाद को शुरूआती ईमानदार राष्ट्रवाद के बरक्स देखने की कोशिश है, वहीं वे अपने बेटे के बहाने अपने बचपन में पहुँच कर कर्जु भैजी जैसा चरित्र पकड़ लाती हैं, जो पन्द्रह अगस्त को स्कूल की सूट सिलता है और पूरे गाँव के लिये दलित है। आजादी के इस मोड़ में पीटे छूट गये लाखों लाख लोगों को प्रतिनिधित्व करते कर्जु के बहाने गीता ने पहाड़ी सामन्ती समाज की जो झाँकी प्रस्तुत की वह बहुत अधिक विश्वसनीय ही नही प्रामाणिक भी है।
(Book Review)

देवताओं का खेल अपने स्मृतिकोष को दुरस्त करता और मौखिक परम्परा को ग्रहण करने का शुरूआती खेल प्रतीत होता है। संम्भव है जो पहाड़ में पैदा हुआ हो उसने जरूर देवताओं का खेल खेला ही होगा, उनकी नकल की ही होगी। मल्यो की डार संस्मरण भी परम्परा ग्रहण की शुरूआती तालीम का सस्ंमरण है, जब पुरखे खेल-खेल में हमें परम्परा का हस्तान्तरण कर देते थे और हमें उसका अन्दाजा तक न होता था। मल्यो की डार पढ़ते हुए मैं स्वयं भी अपने बचपन के आँगन लौट आता है। कुणाबुड के बहाने एक प्रयोगधर्मा दादा का चरित्र उभर के सामने आया है जो पहाड़ों में फैले अन्धविश्वास को नकारते हैं। इन सब संस्मरणों में लोक के इतने सघन बिम्ब है कि पूरा परिवेश चरितार्थ होने लगता है। मेरे मास्टर जी कई कई ढंग से पहाड़ के जातिवाद व स्त्री विरोधी मानसिकता का पर्दा उठाता संस्मरण है, जिसमें गुमनाम, संघर्षशील, प्रयोगधर्मा शिक्षक अन्थवाल मास्टर को गीता ने एक बार पुन: जीवित कर दिया है। एक शिक्षक के सामाजिक दायित्व बोध के मानकों पर खरा यह मास्टर किस तरह दलित बच्चों के द्वारा लाया पानी पीने के बाद आलोचनाओं में घिर जाता है, किस तरह वह लड़कियों को भाषण और गीत-नृत्य सिखाने पर लाँछित होता है इसका कच्चा चिट्ठा है यह संस्मरण।

पहाड़ों में हिन्दू-मुस्लिम गंगजमुनी परम्परा के बहुत मोहक उदाहरण मिलते हैं। गीता गैरोला के (संस्मरण) नजीब दादा इसी गंगाजमुनी परम्परा के वाहक है। इस चूड़ी बेचने वाले, मामूली-से अपार संवेदनाओं से भरे पात्र की पहनाई चूड़ियाँ गीता को आज भी याद हैं। मल्यो की डार एक अजब संस्मरण है, स्मृतियों का अजायबघर है जिसके हर पन्ने में पहाड़ की विहंगम झाँकिया दिखाई देती हैं। चख्कू, चौमास, बिजी जा, स्याही की टिक्की, आ ना मासी धंग, एक रामलीला ऐसी भी, सामूहिकता का रिवाज, नखलिस्तान, गाँव के तरफ, सभी संस्मरण विषयवस्तु के साथ ही विधागत दृष्टि से भी उत्कृष्ट हैं। गीता ने जगह-जगह पर लोक गीतों का भी प्रयोग खूबसूरती से किया है।

तमाम किस्म के सवालों से जूझता यह संग्रह मल्यो की डार इस समय की एक जरूरी किताब है, जिसे नयार नदी की लहरों का लेखा-जोखा कहा जा सकता है, जो सभ्यता के मुहाने से वर्तमान तक पहुँची है। नई पीढ़ी को इस किताब तक जाना ही चहिए और इस बहाने आज के पहाड़ पर बात होनी चाहिए।
(Book Review)

प्रकाशक- समय साक्ष्य, 15 फालतू लाईन देहरादून। पृष्ठ संख्या-158, मूल्य 200 रुपये मात्र 
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