खुदकुशी के साये में-पुस्तक समीक्षा

चन्द्रकला

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी
ये दुनिया है या आलमे बदहवासी

पंजाब की खुशहाली, गेहूँ, सरसों और गन्ने के लहलहाते खेतों की तस्वीरें बचपन से ही मन में जमी हुईं थीं। ट्रैक्टर, हार्वेस्टर और समृद्घ किसानों के साथ-साथ वहां की औरतों के जीवन को मैं अन्य समाजों की अपेक्षा ज्यादा प्रगतिशील और विकसित समझती रही थी। लेकिन ‘रंजना पाढ़ी’ की पुस्तक खुदकुशी के साये में जिन्दगी की बातें पढ़ते हुए ज्यों-ज्यों मैं पन्ने पलटती गयी, मेरे बचपन की तस्वीर धुंधली पड़ने लगी और यह एहसास बढ़ता गया कि पंजाब की खुशहाली को खा जाने वाली विकास की नीतियों ने इस क्षेत्र के इतिहास को ही बदलने की ठान ली है। विकास के नाम पर खेती में महंगे कीटनाशकों का प्रयोग, उपज का सही दाम न मिलना और बाजारवादी नीतियों के दुष्परिणामों ने कभी खेती का सरताज माने जाने वाले इस राज्य को उजाड़ बनाने की दिशा में धकेल दिया है। आज यहां पूरा समाज खुदकुशी के साये में जीने को मजबूर है। परिवार में बढ़ती पुरुषों की खुदकुशी की घटनाओं के कारण औरतों और बच्चों का जीवन तबाह हो रहा है जिसके लिए जिम्मेदार हैं पंजाब राज्य की जनविरोधी कृषि नीति। इन नीतियों का परिणाम ही है कि आज यहां के छोटे व मझोले किसानों के सामने आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। 

विभिन्न तालिकाओं के माध्यम से तथ्यों का विश्लेषण लेखिका ने इतने सरल तरीके से किया है कि सहज ही आपके समक्ष उस समाज की वास्तविकता आ जाती है जहां पर रोज किसी न किसी वजह से परिवार के सदस्य अचानक खुदकुशी का रास्ता अपना लेते हैं। आंकड़ा आधारित विश्लेषणात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए भी खुदकुशी के साये में जी रही महिलाओं से प्रत्यक्ष संवाद कर, उनके जीवन के प्रत्येक पहलू को परखते हुए लेखिका ने संवेदनशीलता को कहीं भी कम नहीं होने दिया है। शायद यही इस पुस्तक की खूबी कही जा सकती है। बकाया कर्ज, बच्चों की शिक्षा, आढ़तियों का अपमानजनक व्यवहार, स्वास्थ्य समस्याएं, दिहाड़ी मजदूरी न मिल पाने के कारणों तथा वास्तविक स्थितियों को छ: अध्यायों और 200 पृष्ठों में समेटने का लेखिका का प्रयास सराहनीय है। महाजनों, कमीशन ऐजेन्टों, आढ़तियों व बैंकों से लिए गए कर्ज के बोझ तले दबे हुए पंजाब के किसान और इन प्रताड़ित किसानों के परिवारों की बदहाल हालात का जीवन्त दस्तावेज ही नहीं, वरन् उसके बाद पीछे छूट गए परिवार की महिलाओं, बच्चों तथा बूढ़े माता-पिता पर आत्महत्या के असर और जीवन को जी लेने की जद्दोज़हद की एक झलक भी है यह पुस्तक।
(Book review : Khudkhushi ke saye mein)

भारत के कईं राज्यों में कृषि संकट की भयावहता में अक्सर महिलाओं को गायब कर दिया जाता है लेकिन लेखिका ने इस पहलू को सामने लाने के लिए अथक मेहनत से साक्षात्कार व तथ्य जुटाने का प्रयास तो किया ही है साथ ही वह यह भी दर्शाना नहीं भूलीं कि महिलाएं तथाकथित विकास की मार झेल रही हैं और हर उम्र की ये महिलाएं किस तरह से अपने परिवार को समेटने में जुटी हुई हैं। पुस्तक में महिलाओं की आवाज को पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करते हुए लेखिका उनका परिचय देती हैं कि ‘चाहे वे जाट सिक्ख औरतें हों, जो खेती के मशीनीकरण से पहले कृषि उत्पादन में भागीदारी करती थी; या दलित भूमिहीन औरतें हों जो लगातार कम होती जा रही मौसमी दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर हैं; या वे युवतियां हों जो खेतिहर अर्थ व्यवस्था से बाहर कदम रखने की हसरत रखती हैं।…… उत्पादन की खेतिहर शैली और वर्तमान में हो रहे व्यापक परिवर्तन इन सबके जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। खुदकुशी के साये में जिन्दगी की बातें करते हुए लेखिका ने जिन महिलाओं से सम्पर्क किया उनमें अधिकांश मृतक किसानों की पत्नियां थीं।

अनगिनत जिंदा इन्सानों की कहानी कहती पुस्तक में ज्यों-ज्यों आप गहरे उतरते चले जायेंगे तो आप स्वत: ही किसानों की खुदकुशी के बाद उस परिवार की महिलाओं की यंत्रणाओं से रूबरू होते चले जायेंगे। विकृत पूंजीवादी विकास के चक्रव्यूह में घिर गये एक किसान और उसके परिवार के पास आत्महत्या के आलावा कोई और रास्ता इस व्यवस्था में दिखाई ही नहीं देता है। यह स्थिति न केवल पंजाब की है बल्कि देश के कई इलाकों की है जहां अब किसानों की आत्महत्या को एक सामान्य घटना मान लिया जा रहा है। जीवन-मृत्यु के बीच में उलझी महिलाओं की स्थिति सबसे बदतर होती है लेकिन इन वास्तविकताओं पर जानकारों का ध्यान कम ही जाता है। पति की मृत्यु के बाद पूरा जीवन बच्चों की आस में काट लेने वाली महिलाओं के ऊपर तब और आफत आ जाती है जब जवान लड़के या तो नशे के शिकार हो जाते हैं या कर्ज के बोझ में दबे हुए पिता की राह में चलने को मजबूर हो जाते हैं। महिलाएं कैसे इस भंवर में फंसी हुई, जीवन से जूझती पूरी उम्र गुजार देती हैं और फिर भी अपने परिवार को सहेजने का साहस करती हैं। इस संवेदनशील विश्लेषण को समझने के लिए भी पढ़ी जानी चाहिए यह पुस्तक।
(Book review : Khudkhushi ke saye mein)

इस पुस्तक में किये गये सर्वेक्षण में 70 प्रतिशत किसानों ने कीटनाशक पीकर अपनी जान दी। शराब पीना व नशीली दवाओं का सेवन और खाना-पीना छोड़ देना भी खुदकुशी का एक तरीका है। ‘भटिंडा गांव की चरणजीत ने बताया कि 1994 में उनकी बेटी की शादी हुई थी़…… 1996 में पति की खुदकुशी के बाद़….. 17 वर्षीय बेटा बुरी तरह आहत हुआ़… ज़मीन का मतलब था सामाजिक प्रतिष्ठा में….. अवसाद को और बढ़ाने का काम किया।

खुदकुशी के कारण हमेशा अस्पष्ट रहते हैं और पुरुष की इस पीड़ा से अक्सर महिलाएं अनभिज्ञ रहती हैं। महिलाओं के श्रम की अदृश्यता और परिवार को पालने में उनके योगदान के नकारे जाने के परिणाम उतने ही गम्भीर हैं जितना यह तथ्य कि हताश किसान जीवन-मरण के किस दर्द से गुजर रहा होता है। गहरे पारंपरिक व पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जकड़न में महिलाएं पहले ही जकड़ी होती हैं। उस पर कर्ज सिर्फ खेती के लिए ही नहीं लिया जाता बल्कि इनमें भोजन, बच्चों के लिए शिक्षा, रोजगार, शादी-ब्याह, सामाजिक रीति-रिवाजों और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओ के अभावों से अपने परिजनों को बेहतर जीवन प्रदान करने की हसरतें भी शामिल होती हैं।

लेखिका ने दमनकारी सांमती परम्पराओं को ढोने की पुरुषों की मजबूरी को तो स्पष्ट किया ही है, हमारे समाज में आज भी दहेज इज्जत या प्रतिष्ठा का प्रश्न है, इस सामंती पितृसत्तात्मक रूढ़ि पर भी प्रहार किया है।‘‘दहेज आज भी सबसे बड़ी आर्थिक समस्या बन गई है एक सांमती समाज में…. संपति के लेन-देन का साधन है जिसका उपयोग़….. बेदखल करने के लिए किया जाता है। समाज में इज्जत खरीदने के लिए वर की कीमत लगायी जाती है। परिवार का पिता यदि इस इज्जत को पूरा करने की खातिर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है तो इकलौते बेटे के सर पर न केवल पिता का कर्ज चुकाने का बोझ चुकाना होता है बल्कि बहनों के लिए दहेज न जुटाने के कारण फिर कर्ज लेता है। वह इस जाल में इस कदर उलझ जाता है कि उनके सामने खुदकुशी के अलावा कोई रास्ता नहीं बच पाता औरतें अपने ही परिवार में आत्महत्याओं के इस जाल को काट डालने में कोई भूमिका नहीं निभा पाती हैं।
(Book review : Khudkhushi ke saye mein)

पुस्तक को पढ़ते हुए जहां यह जानकारी पुख्ता होने लगती है कि इस राज्य में आखिर लड़कियों की संख्या क्यों कम होती जा रही है और बहुओं को लाना क्यों कठिन है, वहीं इस तथ्य पर भी गम्भीरता से सोचने के लिए हम मजबूर हो जाते हैं कि पजांब में बढ़ती विधवाओं की संख्या जिन प्रक्रियाओं से निर्धारित हो रही है, वे कितनी भयावह हैं। ‘पूंजी-प्रधान कृषि के जोखिमों ने जहां कईं पुरुष किसानों को भुखमरी या खुदकुशी में धकेला, वहीं इस परिदृश्य में महिलाओं के लिए तो हालात और भी खतरनाक हो गये। ऐसे भी मामले सामने आये हैं जहां पति की मृत्यु के बाद ससुराल वालों ने जाट-सिख महिलाओं को विरासत से बेदखल कर दिया।

लेखिका द्वारा किये गये सर्वेक्षण में 49उत्तरदाताओं ने यह कहा कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लिए इस नरक से बच निकलने या पलायन के रास्ते कम होते हैं इसलिए वे ज्यादा पीड़ित होती हैं। 60 वर्ष की उम्र की लगभग 61 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि उनका अपने जीवन पर नियंत्रण नहीं है। इसमें यह तथ्य भी है कि परिवार के बुजुर्ग अपने बच्चों की पीड़ा को चुपचाप झेलते हैं। पारिवारिक तनाव के कारण महज 30 प्रतिशत ने ही खुदकुशी की है। 79 प्रतिशत ने माना कि कर्ज का दबाव खुदकुशी का एक मुख्य कारण है। मानसिक तनाव जहां खुदकुशी का दूसरा कारण है वहीं कर्जदाता द्वारा सताया जाना खुदकुशी का तीसरा बड़ा कारण है। 49 प्रतिशत ने माना कि जायदाद की खरीद-बिक्री या कर्ज का लेन-देन चुकाने का निर्णय पुरुषों के हाथ में ही होता है।
(Book review : Khudkhushi ke saye mein)

महिलाओं का मेहनत करने के बाद भी जमीन पर हक नहीं है। आज भी महिलाएं कृषि भूमि पर अपने अधिकार का उपयोग नहीं कर पाती हैं। पितृसत्तात्मक ढांचे का सामना करना आज भी महिलाओं के लिए संभव नहीं दिखता, यह इस पुस्तक में परिलक्षित होता है। ‘‘बहुत ही कम महिलाओं के पास अपने नाम पर पट्टे हैं। और ऐसे भी मामले देखने में आते हैं, जहां पट्टा कागजों पर तो जमीन को महिला के नाम पर दर्शाता है, मगर पति की मृत्यु के बाद जमीन की उपज पर कब्जा देवर, जेठ या ससुर का होता है। ऐसा तब भी देखा गया है जब भाइयों के परिवार अलग-अलग रहते हैं। 

महिलाओं की स्थिति को दर्शाते हुए रंजना कहती हैं कि दिहाड़ी मजदूरी करने वाली दलित महिलाओं के हालात तो और भी चिंताजनक हैं। कम मजदूरी वाले कामों में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है लेकिन बुनियादी जरूरतें पूरी होने की संभावनाएं कम हो जाती हैं। जाति का प्रभाव महिलाओं को प्रभावित करता है और उसको ढोना उनकी मजबूरी हो जाती है। कृषि संकट ने महिलाओं की भूमिका को घर तक समेट दिया है। 

‘बीमार अर्थ व्यवस्था में अस्वस्थता से संघर्ष’ अध्याय में स्वास्थ्य सेवाओं और इस क्षेत्र में बढ़ रहे कैंसर के रोगियों की तादाद, महंगे इलाज और सरकार की उपेक्षा के कारण बढ़ती आत्महत्याओं तथा स्वास्थ्य सेवा व्यापारीकरण के कारण गरीब बेहतर इलाज से लगातार दूर होते जा रहे हैं। इसको भी संवेदनशील तरीके से लेखिका ने सामने लाने का प्रयास किया है। ‘‘मालवा इलाके के सैकड़ों लोग रोजाना भटिंडा एक्सप्रेस़ से कैंसर उपचाऱ के लिये जाते हैं। इसलिए इस ट्रेन का नाम पड़ गया है कैंसर एक्सपे्रस। कैंसर का रोग हरित कृषि क्रान्ति में भारी मात्रा में प्रयोग किये जाने वाले कीटनाशकों का परिणाम है। इस रोग के इलाज के लिए भी कर्ज का बोझ बढ़ता चला जाता है और जब कर्ज चुकाने के सारे रास्ते बन्द होने लगते हैं, तब यही कीटनाशक इन कर्जधारियों के लिए जीवन समाप्त करने का जरिया बन जाते हैं।
(Book review : Khudkhushi ke saye mein)

खुदकुशी करने का प्रयास महंगा साबित होता है, इस दर्दनाक पहलू को उजागर करने की दृष्टि भी शायद लेखिका के सामाजिक सरोकार को सामने रखती है। ‘खुदकुशी की कोशिश नाकाम होने पर भी कर्ज लिए जाते हैं…. पैसा ऐंठने का यह सुनहरा मौका होता है। ऐसे मौके पर परिवार के लोग किसी भी हद तक जाते हैं। परिवार के सदस्यों की आत्महत्या या लगातार कर्ज के दबाव के कारण परिवार की महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को दर्ज कराना नहीं भूली है लेखिका ‘‘…. तालिका 4़4 में दर्शाया गया है, 68 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि वे अत्यधिक चिंता का अनुभव करती हैं…… कुछ बुजर्ग महिलाओं ने बताया कि वे रोजाना रोते-रोते सो जाती हैं…..। पुरुषों के नशे की लत से भी पंजाब प्रांत की महिलाएं त्रस्त हैं। ‘‘महिलाओं के बयानों से यह बात साफ तौर पर उभरती है कि पुरुष नशीली दवाओं और शराब की अपनी लत को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।…. घर परिवार की सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने के बावजूद भी महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया और विचार विमर्श में सोच-समझ कर शामिल न करना आज भी समाज की एक बड़ी समस्या है।

कृषि सकंट के बढ़ते जाने और परिवारों के उजड़ने की वास्तविकता, परिवार में बूढ़े माता-पिता के हालात के साथ ही विधवा बहुओं की पराधीन स्थिति का चित्रण जिस बेबाकी से सामने लाने का साहस लेखिका ने किया है वह निश्चित ही भारतीय समाज के सामंती चरित्र और विकृत पूंजीवाद की नग्न तस्वीर है। निम्न पंक्तियों को पुस्तक में दर्ज करते हुए लेखिका उस समाज की कल्पना को साकार करने का संदेश भी देती हैं जहां मेहनत करने वालों को उनका हक मिल सकेगा़….
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,  एक बाग नहीं, एक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
(Book review : Khudkhushi ke saye mein)
खुशकुशी के साये में जिन्दगी की बातें/लेखिका : रंजना पाढ़ी/अनुवाद : सुशील जोशी/मध्यप्रदेश महिला मंच, भोपाल, 2014/ पृष्ठ संख्या: 200, मूल्य : 90 रुपये

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