किताब- जिंदानामा- चाँद तारों के बगैर एक दुनिया

शिवराज सिंह बगडवाल

संविधान प्रदत्त जनवादी मौलिक अधिकारों का किस प्रकार हनन किया जा रहा है। यह जिंदानामा चाँद तारों के बगैर एक दुनिया पुस्तक (जेल डायरी) से बखूबी समझा जा सकता है। यह पुस्तक प्रगतिशील कथाकार, पीयूसीएल कार्यकर्ता व इलाहाबाद से प्रकाशित ‘दस्तक पत्रिका’ की सम्पादक सीमा आजाद ने लिखी है। इसी नाम से एक दूसरी पुस्तक (जेल डायरी) प्रगतिशील लेखक-पत्रकार व जनवादी संघर्षों से जुडे़ विश्वविजय ने भी लिखी है। दोनों ही एक-दूसरे के जीवन साथी हैं। अपनी पुस्तक को विश्व विजय ने रिहाई के बाद और सीमा आजाद ने जेल में पीड़ित बंदियों के बीच रहकर लिखा है। जहाँ तमाम बाधाओं के साथ-साथ बैरेक में रोशनी तक की कमी रहती है। दोनों ही पुस्तकें सरकार की जनसुरक्षा नाम की मशीनरी पुलिस-थाना-जेल आदि की दमन-उत्पीड़न की अलग-अलग घटनाओं, रूपों को बयान करती हैं। वर्तमान व्यवस्था में जन-अधिकार व सुरक्षा प्राप्ति असंभव है। किन्तु दो नम्बर के काले धंधों में लिप्त दबंगों और सत्ता तक पकड़-पहुँच वालों की तो बात ही क्या है? एक तरह से यह उन्हीं जैसे लोगों की व्यवस्था है। ऐसे लोगों को,पूरी खातिरदारी सहित सब कुछ सुलभ-हाजिर है। ये दोनों पुस्तकें तथ्य-परक और सच्चाइयों को जानने का उत्साह एवं पठनयोग्य शैली की रोचकता भी देती हैं।

सीमा आजाद की पुस्तक में उल्लेख है कि बंदियों को जेल में ऊँची जगह में नहीं बैठने दिया जाता। लेकिन अतीक जैसे कैदी के आने पर जेलर अपनी कुर्सी ही उसे पेश कर देता है और जेल अधीक्षक तुरन्त खड़ा होकर अभिवादन करता है। हत्या के मामले में आजीवन कारावास वाली गुण्डा लेडी सुनीता उर्फ मुंडीपासी कई मामलों में जेल आती-जाती रही है। उसने अपनी शानो-शौकत के लिए कर्मचारियों को खिला-पिला कर अपने बस में रखा है। हेडवार्डेन सहित सभी महिला सिपाही उसकी आवभगत में हर समय तत्पर रहते हैं। अस्वस्थ रहने पर वह सरकारी क्वाटर में आराम भी कर लेती है। बैरक में वह अक्सर दूसरी महिला बंदियों से छेड़छाड़ व पीड़ादायक हरकतों में तुली रहती है। सुबह उठकर बदिंयो को गिनती देने बाहर जाना होता है, मगर मुंडीपासी बेफिक्र चैन से सोई रहती है। एक बार तीन दिन तक लगातार उसके ऐसे दुव्र्यवहार से परेशान होकर लेखिका गुस्से में सीधे हेडवार्डेन के पास जाकर बोली, कल से मैं और कोई भी महिला गिनती को बैरक से बाहर नही निकलेंगी। मुंडीपासी को छूट है, तो हमें क्यों नहीं? यह सुन हेडवार्डेन घबराकर बाकी कॉन्स्टेबलों से काफी देर तक खुसर-फुसर करती रही। शाम को मजबूरन मुंडीपासी की सीट बदलकर,दूर एक किनारे बाथरूम के पास दे दी गई। तब से (उसकी वजह) बाथरूम की रोजाना सफाई होने लगी। जेल में आम चर्चा है, उसे सुविधा देने हेतु 10,000 रुपये लिए गये हैं। किसी दबाववश और स्वत: के लालच में मीडिया भी चुप्पी साध रहा है। यह जेल महकमा-मीडिया व गुण्डों की आपसी मिलीभगत का एक उदाहरण है।
(Book review -Jindanama)

पुस्तक में जेल में बंद मासूम बच्चों का वर्णन बड़ा हृदयविदारक है। जेल में जन्मे बच्चों ने बाहर की दुनिया कभी देखी नहीं। रात का आकाश, चाँद-तारे और उगता-ढलता सूरज भी कभी नहीं देखा। गाय, भैंस, बकरी व कुत्ता जैसे जानवरों को देखने से भी वे वंचित हैं। अपने घर-गाँव, शहर को जानने में भी असमर्थ हैं। जो बच्चे घर में जन्म लेकर माँ के साथ जेल आने को विवश होते हैं, उन्हें बाहरी दुनिया का कुछ आभास जैसा तो होता है, बाकी मामलों में सभी बच्चों की एक-सी दुर्दशा। इन बातों को लेखिका ने बहुत सरल शब्दों में मर्मस्पर्शी वेदना के साथ समाज को बताने की कोशिश की है। जेल में साथ रहते उन्होंने अपने स्तर से हर संभव बच्चों को सँवारा-पोशा भी है। जिनके लिए स्वास्थ्य-शिक्षा तो दूर की बात, बच्चों जैसा भोजन-दूध व मामूली खिलौने तक उपलब्ध नहीं। उपलब्धि के नाम पर इन्हें पैदा होते ही जेल की सीखचें मिलती हैं। माना कि इनकी माताएँ किसी अपराध में जेल आ गई हों, किन्तु इन अबोध बच्चों से ऐसा क्रूर खिलवाड़ क्यों? ऐसी दर्दनाक हालत में भी ये बच्चे कुछ न कुछ खेलते-कूदते, कैदियों के साथ बैठते-उठते किसी अज्ञात आशा में जी लेते हैं। जेलबंदी महिला हो या पुरुष, वे सभी अंधेरी कोठरियों-बैरकों में रहते एक-दूसरे से चीजों का आदान-प्रदान, हँसी-मजाक, आपस में लड़ते-झगड़ते अपने बुरे दिनों को काटते-झेलते जिन्दा रहने की उम्मीद बांधे रखते हैं। इसी का  प्रासंगिक नाम है ‘जिंदानामा’, चाँद-तारों के बगैर एक दुनिया।

जेल जीवन के खान-पान, तीज-त्यौहार, इश्क-मोहब्बत और जेल अस्पताल, अदालती सम्बन्धों एवं लूटपाट, घूस-उत्पीड़न, सगे सम्बन्धियों से मुलाकात, रिहाई-मिठाई की दिलचस्प बातों और बहुत-सी कड़वी सच्चाइयों को बड़ी रोचक शैली में प्रर्दिशत किया है। यह पुस्तक पाठकों के लिए रुचिकर व महत्वपूर्ण होगी।
(Book review -Jindanama)

जिन अपराधों के नाम पर लोग जेल आते हैं, उनमें से अनेक अपराध तो यहाँ भी होते हैं। रिश्वतखोरी, छीना-झपटी, चोरी-ठगी, जेल में प्रतिबंधित खान-पान की वस्तुओं की बिक्री। स्मैक-चरस-गांजा-भांग की बिक्री, मरीजों के दूध-अण्डा, दवा की बिक्री। अस्पताल भर्ती, बैरक ट्रान्सफर में रिश्वत, पहरेदारी छूट के नाम पर, पेशेवर दबंग अपराधियों को अपना भोजन खुद बनाने की छूट पर, बंदियों की मुलाकातों पर भारी वसूली, राशन में भारी कटौती आदि अपराध जेलों में सामान्य सी बातें मानी जाती हैं। इसे तो जेल के कर्मचारी और अधिकारी अपना हक जैसा मानते हैं।

जेल बंदियों को अक्सर अपराधी होने कि निगाह से देखा जाता है, अपहृत बुद्धि यह जानने की जरुरत नहीं समझती कि वास्तविक अपराध क्या है? जेल में फंसे लोगों ने अपराध किये हैं कि नहीं। अपराधी तो गिने-चुने ही होते हैं। कुछ तो ‘रस्सी के साँप’ बना दिये जाने से फँसे होते हैं। बाकी सबसे जो अपराध हुए होते हैं, वे व्यवस्था ने कराये होते हैं। किसी भी मनुष्य के पास जो भी चल-अचल सम्पदा और बौद्धिक, शारीरिक शक्ति है, वह केवल उसकी निजी वस्तु नहीं। यह सारी समृद्धि अतीत से लेकर वर्तमान तक प्रकृति के साथ मानव के श्रम और उसी के ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि का योग है। इसमें व्यक्ति विशेष का एक अत्यन्त छोटा सा सूक्ष्म योगदान है। सम्पूर्ण उपलब्धि-समृद्धि, सम्पूर्ण मानव समाज की साझे की (सामूहिक) वस्तुएँ हैं। इसलिए एक व्यवस्थित तरीके से प्रत्येक मनुष्य को इसके उपयोग का अधिकार है। इसे दिया जाना चाहिए। किन्तु दुनिया की शोषक सरकारों की व्यवस्था इस सैद्धान्तिक सच्चाई को स्वीकारना नहीं चाहती। इसे स्वीकार लें, तो फिर किसी तरह का अपराध-हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं रह जायेगी। किन्तु परजीवी- शोषक ऐसा क्यों चाहें?
(Book review -Jindanama)

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