बॉबी गिब की मैराथन दौड़

Bobbi Gibb
-अशोक पाण्डे

बॉबी गिब ने चलना सीखते ही दौड़ना शुरू कर दिया था। उसकी बाकी सहेलियां भी दौड़ा करती थीं लेकिन तेरह-चौदह की आयु तक उन्होंने दौड़ना छोड़ दिया। बॉबी बीस की हुई तब भी दौड़ ही रही थी। जाहिर है, उसे ऐसा करने में आनन्द आता था।
(Bobbi Gibb)

अमेरिका के एक छोटे-से शहर की रहने वाली बॉबी को इस उम्र की होने तक समाज में स्त्री का दर्जा भी समझ में आना शुरू हो रहा था। उससे घर पर रहकर पति और परिवार का ख्याल रखने की उम्मीद की जाती थी लेकिन बॉबी बाकी स्त्रियों से अलग थी। उसे जीवन में किसी गहरे अर्थ की तलाश थी। 1964 का साल था। जब बाईस साल की उम्र में वह अपने पिता के साथ बोस्टन गई। इत्तेफाक से उसी दिन वहां हर साल आयोजित होने वाली विश्वविख्यात मैराथन चल रही थी। बॉबी ने उसे करीब से देखा, उसने जीवन में पहली बार इतने सारे आदमियों को एक साथ दौड़ता हुआ देखा था। मनुष्य की शारीरिक क्षमता को उसके चरम तक ले जाने वाली इस रेस को देखकर वह मंत्रमुग्ध रह गई।

घर वापस लौटने के अगले ही दिन से उसने मैराथन दौड़ने की प्रैक्टिस करना शुरू कर दिया। दो साल की तैयारी के बाद उसने बोस्टन मैराथन में भाग लेने के लिए अप्लाई किया तो उसे बताया गया कि नियमों के अनुसार वह हिस्सा नहीं ले सकती। जाहिर है दुनिया में चलने वाले बाकी नियम कानूनों की तरह खेलों के भी सारे नियम पुरुषों ने ही बनाये थे। तब तक औरतों को डेढ़ मील से ज्यादा लम्बी रेस दौड़ने लायक नहीं समझा जाता था। यह मान लिया गया था कि अपनी नाजुक और कमजोर देह रचना के चलते वे इससे अधिक दौड़ पाने लायक नहीं होतीं। 26 मील की मैराथन दौड़ना तो असंभव था। यह अलग बात है कि बॉबी तब तक एक बार में चालीस मील तक दौड़ रही थी। अधिकारियों का यह बयान पढ़कर उसे हंसी आई कि औरत डेढ़ मील से ज्यादा नहीं भाग सकती क्योंकि उससे अधिक भागने की हालत में कोई भी बीमा कम्बनी उसके जीवन की गारंटी देने को तैयार न थी।
(Bobbi Gibb)

बॉबी की समझ में दो बातें आयीं। पहली यह कि बोस्टन मैराथन के आयोजकों के सामान्य ज्ञान में थोड़ी वृद्धि की जानी चाहिए और दूसरी यह कि अगर वे उस दौड़ में हिस्सा ले सकी तो अपने समय की महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई में वह एक बड़ा कदम होगा। रेस में हिस्सा लेने के लिए वह तीन रात और चार दिन का बस का सफर तय करके कैलिफोर्निया से बोस्टन पहुंची। वहां से उसका घर नजदीक ही था। स्टेशन पर पहुंचकर उसने अपने मां-बाप को फोन करके अपने इरादे के बारे में बताया। उसके पिता को लगा, बेटी का दिमाग खराब हो गया है। शुरू में माँ ने भी ऐसा ही समझा लेकिन जब बॉबी ने उन्हें बताया कि उसकी दौड़ स्त्रियों के लिए बराबरी के हक की लड़ाई है तो वे रोने लगीं। मां ने पूरी जिन्दगी में पहली बार अपनी बेटी का पक्ष लिया और प्रस्ताव दिया कि अगले दिन रेस के लिए वही उसे गाड़ी से छोड़ने जायेंगी।

उसे पता था वह एक अवैध काम करने जा रही थी जिसके लिए उसे जेल भी भेजा जा सकता था। अगले दिन यानी 19 अप्रैल 1966 को अपने भाई की वरमूडा निक्कर और हुड वाली स्वेटशर्ट पहनकर बॉबी रेस के स्टार्ट प्वाइंट पर पहुंची। उसने ऐसा इसलिए किया था कि लोग उसे पहचान न सकें। रेस शुरू होने तक वह झाड़ियों में छिपी बैठी रही। जब आधे लोग भाग चुके थे वह बाहर निकली और दौड़ने लगी। कुछ देर बाद उसके पीछे चल रहे कुछ धावकों ने उसे देखकर कयास लगाना शुरू किया कि वह औरत है। बॉबी ने हुड उतारकर उन्हें बताया कि हां, वह औरत है और अपने अधिकार के लिए दौड़ रही है। उसने उन्हें यह भी बताया कि उसे डर है कि असलियत पता चलने पर उसे रेस से बाहर कर दिया जायेगा। साथी धावकों ने उसे यकीन दिलाया कि उनके रहते हुए ऐसा करने की हिम्मत किसी की नहीं होगी।

दौड़ने वाले और दर्शकों के बीच आग की तरह यह खबर फैल गई। जगह-जगह उसका स्वागत होने लगा। स्थानीय रेडियो पर उसकी दौड़ की रनिंग कमेंट्री शुरू हो गई। रेस खतम होने पर मैसाचुसेट्स के गवर्नर खुद उससे हाथ मिलाने को वहां खड़े थे। इतिहास बन चुका था और अगली सुबह के अखबारों के पहले पन्ने पर उसकी तस्वीरें थीं। बॉबी ने 3 घंटे 21 मिनट 40 सेकिण्ड में दौड़ पूरी की। हिस्सा ले रहे दो तिहाई से ज्यादा पुरुष उससे पीछे थे। इसके बावजूद स्त्रियों को आधिकारिक रूप से मैराथन दौड़ने का अधिकार 1972 में मिला।
(Bobbi Gibb)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika