सर्वोत्तम माता

प्रदीप पाण्डे

सिसा अबू दाओ को मिश्र के नगर लकसर ने सर्वोत्तम माता के खिताब से नवाजा है। एक ऐसी माँ जिसने परिवार की सेवा के लिए बहुत बड़ा त्याग किया। यह अजीबोगरीब वाकया इस तरह हुआ कि 1970 में जब वह गर्भवती थी तो उसके पति की मृत्यु हो गई। सिसा को अब परिवार की जिम्मेदारी सम्भालनी थी। वह पढ़ी लिखी तो थी नहीं कि कोई नौकरी कर सके। लिहाजा उसके पास दो ही विकल्प थे- या तो वे भीख माँगें या मजदूरी करें। भीख माँगना उसे स्वीकार नहीं था। मगर तत्कालीन मिस्र का समाज महिलाओं को मजदूर के रूप में स्वीकार नहीं करता था। नतीजतन सिसा ने वह कदम उठाया, जो अकल्पनीय था। उसने पुरुष वेश धारण करने का फैसला किया।

सिसा ने अपना सिर मुंडवा लिया। ढीला-ढाला जिलवाब यानी एक चोगानुमा वस्त्र जिसकी बाँहें ढीली-ढाली होती हैं और तकिया यानी पगड़ी धारण कर ली व मर्दों के जैसे जूते सिलवा लिये। उसने वे सारे काम करने शुरू कर दिये जो पुरुष मजदूर करते हैं जैसे ईंट भट्टों में काम करना, खेत-खलिहानों में मजदूरी करना, लकड़ी काटने का काम। ”मैं अकेले दस के बराबर काम करती थी” सिसा बताती है। किसी के लिए यह गुंजाइश नहीं थी कि वह उन्हें कामचोर या नाजुक समझे। धीरे-धीरे शरीर कमजोर होने लगा तो सिसा ने जूता पॉलिश करने का काम शुरू किया।

”एक औरत अपनी पूरी पहचान ही बदल दे, यह काम कठिन भी था और कष्टदायी भी मगर मैं अपनी बेटी के लिए कुछ भी कर सकती थी।” सिसा का कहना है, बच्ची छोटी थी उसका  लालन-पालन कैसे होता। मजदूरी करना मेरी मजबूरी थी।  सिसा ने पुरुष बनकर रहने में आनन्द लेना शुरू किया। वह मजदूरों के समूह में आराम से बैठी रहती, जहाँ सिगरेट का धुँआ सब कुछ था। मगर अब वह शक्लो सूरत से इन्हीं की जैसी थी तो उसे लिंग भेद का डर था, न पुरुषों की बुरी नजर का।

लेकिन उसके घर के आसपास के लोग तो जानते थे कि वह कौन है। धीरे-धीरे यह बात फैलती चली गई। सिसा ने अपनी तरफ से कोई घबराहट नहीं दिखाई। वह अपने ढंग से चलती रही। उसकी असलियत प्रचारित होने का फायदा यह हुआ कि उसके शहर के लोगों को उसके त्याग का पता लगा व उसे सम्मान के लायक समझा गया। प्रशासन ने उसके जूता-पॉलिश के धंधे के लिए उसे एक खोखा दे दिया। सिसा की बेटी का पति भी अल्पायु में चल बसा। उस पर अभी भी परिवार की पूरी जिम्मेदारी है। सिसा आज भी पुरुष के वेश में रहती है, कहती है ”यह वेश तो मैं जीते जी नहीं छोड़ूंगी।”
(best mother)
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