आँसुओं के रेगिस्तान

गीता गैरोला

गाँव से आज बहुत दिनों के बाद चिट्ठी आई है। दादा जी, दादी को पढ़कर सुना रहे हैं, जैसे पहाड़ से आई चिट्ठी का सरोकार सिर्फ उन दोनों के बीच का तन्तु हो। हम सब भी दादा जी के आसपास जमा हो गये। गाँव से आने वाली हर चिट्ठी, गाँव की याद और पहाड़ों की ठन्डी-मटैली महक लेकर आती है। पहाड़ से आने वाली हर चिट्ठी, हर सूचना का सम्बंध केवल दादा जी के साथ होता है। पिताजी और हम सब भाई-बहनों की गिनती यहाँ पर नहीं होती। पहाड़ के साथ ये लगाव कौन जाने दादा जी के जीवित रहने तक ही रहे। दादा जी के न रहने पर हमारा गाँव से सम्बंध समाप्त हो जायेगा या ये चिट्ठी सूचनाओं का हस्तान्तरण पिताजी तक भी रहेगा। क्या मालूम, होगा या नहीं। हमारे लिए तो दादी, दादा जी ही गाँव की थाती हैं। अचानक दादा जी के मुँह से हे राम-राम शब्द निकला। हम सबने एक साथ कहा, क्या हुआ। हरे राम, हरे राम दादा ने लम्बी सांस खीचते कहा, सुधा मर गई, कैसे ? मेरा हाथ स्वाभाविक तौर से मुँह पर चला गया। मैंने आश्चर्य से कहा, हाय कैसे! अरे बाबा उसने मरना ही था। दादाजी ने जवाब दिया। ललिता ने उसे उसी दिन मार दिया था, जिस दिन बहुत मना करने के बावजूद उसका ब्याह किया। अरे, सुधा जैसी सीधी-साधी बच्ची की शादी ऐसे घर में होनी चाहिए थी, जो उसे प्यार से रखते। तब ललिता के दिमाग में मिलट्री में नौकरी करने वाला जंवाई ऐसा छाया कि अपनी बेटी की कमियां दिखाई ही नहीं दीं। दादा-दादी सब दु:खी होकर सुधा की मौत का शोक मना रहे थे। मैं अपने कमरे में आकर चुपचाप सोचती रही क्या हुआ होगा ऐसा? बीस वर्ष की उम्र भी कोई मरने की उम्र होती है।

सुधा मुझसे लगभग पांच साल छोटी रही होगी। मेरे दूसरे नम्बर वाले भाई के बराबर। वह सीधी-सादी दिन-रात काम में लगी रहने वाली लड़की थी। उसने शायद देर से बोलना शुरू किया था इसलिए बड़ी दादी (मेरी दादी की जेठानी) उसे लाटी (कम बोलने वाली मंद बुद्धि) कह कर बुलाती। दादा जी ने उसका नाम सुधा रखा। धीरे-धीरे लोग सुधा कहना भूल गए और उसका प्रचलित नाम लाटी हो गया। हम सब भाई-बहन भी उसे लाटी कहकर ही बुलाते। उसकी माँ और मेरी बड़ी चाची अपनी सास को तो कुछ नहीं कह पाती पर हम सब बच्चों को हमेशा डांटती रहती। उसका नाम बिगाड़ दिया। लड़की जात है, लोग क्या कहेंगे। नाम ही लाटी रख दिया तो लाटी ही होगी। अरे, ब्याह करना मुश्किल हो जायेगा। पूरे परिवार में कुल तीन सदस्य ही उसे सुधा कह कर बुलाते। बड़ी चाची (उसकी माँ) मेरी दादी और दादा जी।

सुधा मेरे पिताजी के तयैरे भाई की दूसरे नम्बर की बेटी थी। चाचा जी (सुधा के पिता) बनारस से शास्त्री की परीक्षा पास कर गाँव में पंडिताई करते थे। उन्हें ज्योतिष का अच्छा ज्ञान था। शादी, विवाह, वार्षिक श्राद्ध, तेरहवीं, नामकरण, मुंडन, श्राद्धपक्ष (पितृपक्ष) दोनों नवरात्रि की पूजा-पाठ के अतिरिक्त वे अच्छी जन्मपत्री बनाने के लिए प्रसिद्ध थे। लोग उनके पास गणत करवाने आते। किसी का जानवर खो गया, चोरी हो गई या सामान खो जाये तो चाचा जी कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं खींच कर सब का जवाब देते। पता नहीं वह सच होता था या झूठ, पर लोगों का शास्त्री चाचाजी के ऊपर पूरा विश्वास था। वे तंत्र-मंत्र भी करते। किसी को छल (भूत) लगता तो वे मंत्रों से सिद्धि कर भूत भगाते थे, लोग ऐसा ही मानते थे।

गाँव में हमारा पूरा परिवार एक बड़े से घर में रहा करता। हालांकि चूल्हे और खेती सबकी अलग थी। खेती, जंगल का काम, सब बहुएं मिलकर करतीं। गाँव की निचली सीमा में रेल के डिब्बे जैसा, लाल पेंट से पुते जंगले और हरे पेंट किये दरवाजों वाला हमारा घर दूर से दिखाई देता था। छज्जे में लगे शीशे सूरज निकलते ही सामने वाले पहाड़ पर स्थित चौंदकोट पट्टी के गाँवों से लशकारे मारते थे। 10 वास (जिसमें पहाड़ी स्लेट की छतों वाले 20 कमरे तथा जानवरों को बांधने की गोठ शामिल थे) के घर में बड़ी दादी, छोटी दादी (पिताजी की ताई, चाची) मेरी दादी, दादा जी बड़ी चाची, छोटी चाची, मेरी माँ, शास्त्री चाचा जी, हम चचेरे-तयेरे तेरह भाई-बहन रहते। दादा जी हमारे घर के मुखियां थे। सब बेटे, बहुएं नाती-पोते दादा जी का बहुत सम्मान करते। हम सब भाई-बहन स्कूल जाते थे। गाँव में प्राइमरी स्कूल मेरे दादा जी के प्रयासों से ही बना था। मैं उस स्कूल की पहली छात्रा थी। 1960-61 में मेरे दादा जी गाँव के प्रधान थे। उनके द्वारा स्कूल बनाने सम्बंधी कई दस्तावेज आज भी यादगार के तौर पर मेरे पास सुरक्षित रखे हैं। गाँव में प्राइमरी स्कूल बनने से पूर्व गाँव के सब बच्चे नगर गाँव के स्कूल में जाते थे। नगर गाँव के स्कूल में हमारे गाँव से मात्र दो लड़कियाँ ही जाती थीं, जिनमें से एक मेरी दीदी सरोजनी थी।

इतने सारे भाई-बहनों के होते हमें गाँव के अन्य बच्चों के साथ खेलने के मौके कम ही मिलते। अपने घर में ही दिन-रात धमाचौकड़ी मची रहती। स्कूल जाने वाले सभी बच्चों को (जिसमें हम सब लड़कियाँ भी शामिल थीं।) दादा जी रोज शाम को एक साथ बिठा कर पढ़ाते। सब बच्चे हाथ-मुँह धोकर अपना बस्ता लेकर हमारी बैठक में आ जाते। बीच में लालटेन जला दी जाती और दादा जी स्कूल में पढ़ाये पाठ के बारे में पूछते। गिनती, पहाड़े सुद्ध मात्राएं लगाना। ड्योड़ा, ढामा, सवैया अद्धा, ग्राम, मीटर, लीटर सारे पैमाने हम सबने दादा की कक्षा में ही याद किये। वे नव सिखियों को मौखिक जोड़, भाग और गुणा सिखाते। एक गाय के दो सींग हैं, तो चार गायों के कितने सींग होंगे? हम सब एक स्वर में जोर से बोलते – आठ।

मंजू के पास चार रोटी है। दो रोटी रीता ने ले ली, मंजू के पास कितनी रोटी बची? दो, हम जोर से जवाब देते ।

ऐसे हजारों सवाल खेल-खेल में हम कब सीख गये पता ही नहीं चला। कहावतें, लोकोक्तियां, मुहावरों का ज्ञान दादा जी की उसी बैठक का ही परिणाम है। एक मुर्गी चलते-चलते थक गई। लाओ चाकू काटो गर्दन फिर भी वो चलने लगी।

बोलो बच्चों, क्या? हम सब एक साथ चिल्लाते कलम- दादा जी कहते शाबाश। उसी बैठक ने ढ़ेरों प्रार्थनाएं, विष्णु सहस्त्रनाम, गीता के श्लोक, कविताऐं भी हमें याद कराये, जो मुझे आज भी याद है।
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मुझे और मेरी छोटी बहन रीता को घुटनों में झुलाते हुए दादा जी तुकबंदी करते –

घुघती करे जुगती मुकती
पिछवां करे घोल
दो पैसे की गीता लड़की
उसको ले लो मोल।

(घुघती जुगत लगाकर घोंसला बनाती है और बाकी पक्षी अपना घोंसला अच्छी तरह बनाते हैं।)

ऐसी ही एक मजेदार कहानी सुनने की हम अक्सर जिद करते। जो कविता में बोली जाती थी। दादाजी से कहानी सुनते-सुनते वह हम सबको रट गई थी।

बंदर-बंदर तेरे सिर में जंदर
गूणी-गूणी तेरे सिर में घट
बल भई ये क्या पट।
अरे पट न सही तो
 गरे (भार) से तो मरेगा

(एक लंगूर बंदर से कहता है, बंदर तेरे सिर में चक्की। बंदर ने जवाब दिया, लंगूर तेरे सिर में पनचक्की। लंगूर ने कहा, ये पंक्तियां एक-दूसरे से मेल नहीं खातीं। बंदर बोला, मेल नहीं खातीं तो क्या, तू बड़ी पनचक्की के भार से तो मरेगा।)

ये कहानी रोज सुनने के बाद भी हम ध्यान से सुनते। अंत होने पर ताली पीट-पीट कर जोर-जोर से हंसते। इसी बैठकी में पहाड़ों का इतिहास, भूगोल, लाल बहादुर शास्त्री, सरोजनी नायडू, जवाहर लाल नेहरू, सुचेता कृपलानी, झांसी की रानी, महोदवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, तीलू रौतेली, सोने के बालों वाली लड़की की कहानी हम सब आश्चर्य से सुनते। पहाड़ों के इतिहास-भूगोल के बारे में वे कहानी बना कर हमें सुनाते। हम खूब प्रश्न पूछते, जो बच्चा जितना प्रश्न पूछता, दादा जी उसको उतनी ही शाबासी देते। हम लोगों की घर-बाहर की सारी जिज्ञासा का जवाब उनके पास रहता। 1962 में चीनी हमले के समय पहाड़ों में अफवाह फैल गई कि चीनी लोग छोटे बच्चों को ओखली में मूसल से कूट कर मारते हैं। दादा जी हमारे भय को दूर करते कि चाहे चीन अभी भारत से लड़ाई कर रहा है, पर बच्चों से उसका कोई बैर नहीं है। वे इस बात को समझाते कि चीन देश हमारा पड़ोसी है। पड़ोसी कभी दुश्मन नहीं होता। लोक ज्ञान और गाँव समाज की अनोखी पाठशाला थी, हमारे दादाजी की क्लास। इसी क्लास में एक दिन दादा जी ने सुधा से पूछा।

सुधा बेटा, आज स्कूल में क्या पढ़ाया। वह दादा जी से तारीफ पाने के चक्कर में जल्दी से बोली, मास्टर जी ने पूछा – राजा दशरथ की कितने रांडे थी।

मैंने कहा-तीन रांडे थीं। वह जल्दी में राणी को रांडे कह रही थी और हमारा पूरा घर हंस-हंस कर लोट-पोट हो रहा था। ये पूरा किस्सा आज इतने वर्षों बाद भी हम भाई-बहन खूब मजे लेकर सुनते-सुनाते खूब हंसते हैं। ऐसे ही सुधा का एक दूसरा किस्सा भी हमारे बीच में बहुत मशहूर है। पहाड़ी गाँवों में आज भी महिलाओं के प्रसव दाइयाँ ही कराती हैं। आज से पैंतीस-चालीस साल पहले जचगी के लिए अस्पताल और डॉक्टरों के बारे में सोचना ही सपना था। बकौल दादी, हमारे गाँव की एक प्रशिद्ध दाई थी, जो रिश्ते में मेरी दादी की सास और हमारी बूढ़ी दादी होती थी। मेरे पिताजी, चाचा जी से लेकर हम सब भाई-बहनों को सुरक्षित पैदा करने का श्रेय उन्हीं बूढ़ी दाई दादी को जाता है। पहाड़ों की अधिकांश दाइयां जचगी के बाद बात प्रसूति बिगड़ने के नाम पर औरतों को तम्बाकू पीने की सलाह देती थीं। तम्बाकू पीने की ये प्रक्रिया परिवार के पुरुषों से छिप कर होती। मेरी दादी के बारे में दादा जी जानते थे कि ये तम्बाकू पीती है। इसलिए दादी के लिए एक छोटा-सा नारियल का हुक्का और छोटी से चिलम अलग से रखी रहती। बड़ी दादी भी तम्बाकू पीती थी या नहीं इस बारें में मुझे याद नहीं, पर छोटी दादी खूब तम्बाकू पीती थी। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि दाई दादी की मेहरबानी से जवान बेटियां-बहुएं भी छिपा कर यह शौक फर्माया करतीं। मेरी माँ, बुआएं, चाचियां सब तम्बाकू पीने की शौकीन थीं, जब भी उन्हें तलब लगती, वे कहतीं, चलो फूंक सिंह को लाते हैं, और ये कोडवर्ड सब समझ जातीं।

हमारे घर के कोने में एक अंगीठी में राख के नीचे दबा कर कोयले की आग सुरक्षित रखी जाती थी। जब भी तम्बाकू पीना हो कोयले फूंक मार कर सुलगा लिए।

एक दिन छोटी दादी को दिन में तम्बाकू की तलब लगी। वहाँ पर सुधा खड़ी थी। दादी ने उसे कहा, लाटी बाबा जरा दादा जी की अंगीठी से जले कोयले लाना, पर दादा जी से छिपा कर लाना।

सुधा डाडू (गहरी बड़ी करछी) लिए दौड़ कर दादा जी की बैठक में गई। इत्तेफाक से दादा जी वहीं पर बैठे थे। सुधा ने दादा जी कहा-दादाजी आग दे दो। दादा जी ने पूछा क्यों ? दोपहर का समय था। उस समय आग जलाने का समय नहीं हुआ था। उस जमाने में पहाड़ों के लोगों के पास आग जलाने के लिए माचिस नहीं होती थी। सुबह-शाम चूल्हें में आग जलाने के लिए जले कोयले या चीड़ के छिलकों को जलाकर एक दूसरे के घर से आग माँगा करते थे। इसीलिए दादा जी ने स्वाभाविक रूप से पूछा, इस समय आग की जरूरत कैसे पड़ गई। सुधा ने जल्दी से कहा, छोटी दादी तम्बाकू पियेगी इसलिए आग चाहिए। अब छोटी दादी के लिए तो शर्म से मरना हो गया। जेठ जी के सामने तम्बाकू पीने की पोल खुल गई। वहीं पर एक लकड़ी पड़ी थी।  सो अंदर से ही खींच कर मारी सुधा पर, सुधा तो ये जा और वो जा। लापता। दो-चार दिन तक ये किस्सा हमारे घर में सबने चटखारे लेकर सुनाया। कुछ दिन सुधा छोटी दादी के पल्ले नहीं पड़ी, वरना वो धुनाई होती कि सुधा रानी याद रखती। हमारी पीढ़ी में दीदी सबसे बड़ी थी। वे बड़ी बहन होने का धर्म भी बखूबी निभातीं। जब जो भाई-बहन पल्ले पड़ते बिना बात ही कान उमेठ कर एक चांटा रसीद हो जाता। घर के बड़े लोग दीदी के इस काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करते। दीदी की तरफ से भी ताऊ -चाचा के बच्चों के साथ थप्पड़ मारने में कोई भेदभाव नहीं होता। हम सब उससे बहुत डरते। थप्पड़ खा उसकी पहुँच से दूर जाकर गाली देते। पीठ पीछे से मुँह चिढ़ाते। दीदी कभी उधार नहीं छोड़ती, आज की गाली की मार चार दिन बाद भी पड़ सकती थी। उसके कपड़े रंग-बिरंगा छाता, जाली वाली चुन्नियां, लाल कोट, चूड़ियां, बिंदी, माला, फूंदी, सब हमारे लिए छूना मना था। यदि गलती से भी छू लिया तो वो पिटाई होती कि पूरे परिवार में कोहराम मच जाता। आगे-आगे पिटने वाला और पीछे-पीछे दीदी। बड़ी होने के नाते पूरे घर में उसका रोब-दाब वाला साम्राज्य चलता। पूरे घर के लोग उसकी बड़ी देखभाल करते। चाचा जी, चाची, दादी जहाँ भी जाते दीदी के लिए जरूर कुछ अच्छी नई चीजें आतीं। हम तो कहीं तीन-तेरह में थे ही नहीं। बड़ी दादी जब भी छाछ बनाती, एक छोटी कटोरी में दीदी के लिए मक्खन अलग से निकाल देती। दीदी का हम भाई-बहनों के बीच में आंतक रहता।
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दादी, माँ, चाची भी हमारी शिकायत उसी से करतीं। सत्ता के इस हस्तान्तरण का दीदी बहुत मजा लेती। भाई बहनों में मेरा दूसरा नंबर था, छोटे भाई-बहनों से जितनी मेरी दोस्ती थी, उतनी दीदी की नहीं। हर बदमाशी में मैं उनके साथ रहती और उन्हें अपने साथ शामिल करती। इससे शैतानियों के बाद पड़ने वाली मार का बंटवारा हो जाता।

घर के बड़े-से बरामदे के किनारे एक खिड़की थी, जिससे ऊपर-नीचे आने-जाने के पूरे रास्ते दिखाई देते थे। चौमासे की झड़ी में जब माँ, चाची खेतों से धान, झंगोरें, मडुवे की गुड़ाई कर भीगी हुई ठंड से कांपती लौटतीं, मैं अपने छोटे भाई-बहनों के गैंग के साथ उसी खिड़क़ी में जोर-जोर से एक कविता गाती –

मेरी अम्मा आयेगी
ठुम-ठुम करती आयेगी
छतरी लेकर आयेगी

माँ और चाची को दूर से आते देख मेरे नेतृत्व में सब उत्साहित हो कर एक स्वर में गाते। मेरी अम्मा आयेगी। हमारी बारिश से भीगी हुई ठंड से कांपती माँएं हमारे प्यार को देख कर अपनी थकान भूख, प्यास भूल कर हमें गले लगा लेती। हम सब अपनी-अपनी माँ की भीगी कुनकुनी हरे घास की हरियाई महक से महकती छाती से बहुत देर तक चिपके रहते। ऐसे ही मस्ती भरे बचपन के खिलन्दड़े दिनों को पार करते हम अपनी पढ़ाई में रम गए।

माँ की बीमारी के कारण हम पाँचों भाई-बहन, पिताजी के पास मुरादाबाद आ गये। लेकिन गाँव से रिश्ता हमेशा बना रहा। मैं और दीदी गर्मियों की छुट्टियां होते ही दादा जी के साथ गाँव चले जाते। इस बीच मंजू, मधु, कुसुम जीतेन्द्र, हेमू, सुधीर, सुधा, संध्या, अरूणा सब बड़े हो रहे थे। 1971 में माँ की मृत्यु हो जाने के बाद दादी और दादा जी हमारी देखभाल करने के लिए हमारे साथ मुरादाबाद आ गये। उन दिनों पिताजी की पोस्टिंग पी.ए.सी़ मुरादाबाद में थी। प्रत्येक वर्ष गर्मियों की छुट्टियों में गाँव जाने का सिलसिला थम गया, पर गाँव हमारी यादों में बसा था। वक्त गुजरने के साथ सबके ब्याह हो गये। सुधा की बारी भी आई। मेरे लिए भी उसकी शादी का निमंत्रण आया था, पर मैं जा नहीं पाई। और अब शादी के केवल डेढ़ साल बाद ही सुधा के मरने की खबर आई।

ये उमर तो जीने के सपने देखने की होती है। ऐसा क्या हुआ होगा कि वह मर गई या मार दी गई। हम सब सदमे में थे। दादा जी ने चाचाजी को संवेदना का पोस्टकार्ड लिखा।

सुधा की मृत्यु के काफी सालों बाद देहरादून में चचेरी बहन कुसुम से मिलना हुआ। सबके हाल समाचार और बचपन की ढ़ेरों बातों के बीच सुधा की याद आनी ही थी। कुसुम ने सुधा के ब्याह होने से मौत होने तक का पूरा किस्सा बारीकी से सुनाया। जिस लड़के से सुधा का ब्याह हुआ था, वह आर्मी में नौकरी करता है। खूब गोरा-चिट्टा, लंबा, खूबसूरत नौजवान। सुधा का रिश्ता पक्का होने पर पूरे गाँव वालों ने एक सुर से कहा, लाटी बड़ी किस्मत वाली है। इकलौता लड़का मिला है, ऐश करेगी। उसके ससुराल में एक बड़ी विधवा भाभी और पिताजी के अलावा कोई नहीं था। छोटा परिवार खेतों का काम भी कम करना पड़ेगा।

सुधा का जंवाई (पति) महेश तो साल में दो महीने के लिए ही घर आता था। पूरे परिवार में बस सुधा सहित तीन प्राणी थे। भुली, साधारण शक्ल-सूरत की पांचवी पास लड़की, कैसे पसंद आ गई उस लम्बे सुंदर मिलट्री के नौजवान को? मैंने कुसुम को बीच में टोका।
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क्या बात करती है दीदी तू, सुधा से किसने पूछा। लड़के की भाभी आई और रिश्ता करके चली गई। लोगों को लड़के के पिताजी के दर्शन भी सुधा की बारात में ही हुए। पर हाँ, सुधा के दूल्हे के पैदा होने की एक मजेदार कहानी कुसुम ने सुनाई। सुधा के ससुर की शादी बीस वर्ष की उम्र में हो गई। एक वर्ष बाद बेटा पैदा होते समय उमर की कच्ची नादान पत्नी की मौत हो गई। इक्कीस साल के पिता ने बेटे को पालने के लिए दुबारा शादी न करने का फैसला किया। घर और खेती के काम के साथ बच्चे को नहलाना-धुलाना बच्चे की हारी-बीमारी सब खुद ही झेली। बाप होकर भी माँ बन गया था सुधा का ससुर। समय को बीतना था सो गुजरा। जैसे ही बेटा बीस साल का हुआ, सुधा के ससुर को परिवार वालों ने बेटे का ब्याह करने की सलाह दी। गृहस्थी के बोझ से थके-हारे सुधा के ससुर बिखरी गृहस्थी को संभालने बहू ले आये। अठारह वर्षीय बहू सुघड़, समझदार और मेहनती थी। आते ही बीस सालों से उजड़ी गृहस्थी को सहेज कर चमका दिया। दोनों बाप-बेटों ने अब तक खुद ही बनाया और खाया था। औरत के बनाए खाने के स्वाद ने बाप-बेटे के गालों में ललाई भर दी। दोनों भाई-भाई जैसे लगने लगे। बेटा पढ़ाई के साथ नई नवेली बहू के रास-रंग में डूबा रहता और पिता सुव्यस्थित गृहस्थी के सुख में बौराया फिरता। रातें मोती बिखराती, दिन चुन-चुन मोती चुगतें उड़ रहे थे कि होनी तो कुछ और है। दाता के मन और इक्कीस बरस के जवान बेटे को अचानक मौत ने निगल लिया। बहू के आने के कुछ महीनों बाद ही जवान बेटे की अचानक मौत ने प्रौढ़ पिता और नवेली बहू को सदमें से पगला दिया। घर में बचे प्रौढ़ उम्र के ससुर और उन्नीस वर्ष की छोटी-सी बहू। जिस व्यक्ति ने इक्कीस वर्ष की उम्र से नन्हें से बच्चे के सहारे दिन बितायें हों। अपनी उठती भरी जवानी पुरुष होने की भरपूर सुविधा के बाद भी बच्चे को पालने की मेहनत में काटी हो। बेटे की मौत ने उसकी हिम्मत तोड़ दी। ससुर और बहू दोनों समझ ही नहीं पाए कि अब क्या करें। देखते-देखते घर पहले की तरह वीरान हो गया।

पहले घर उजाड़-सुनसान था, पर दोनों बाप बेटे भविष्य की ओर से खुशियों के आने की बाट जोहते थे। अब कहीं कुछ नहीं, बस घुप्प अंधेरा। एक प्रौढ़ ससुर और जवानी की दहलीज पर जिंदगी के सपने बुनती नन्ही-सी बहू। रातें आंसू बहाती और दिन का सूरज आंसू सोख लेता। समय कहां रुकता है। वक्त बीतता रहा। पहाड़ी ब्राह्मणों में विधवा का विवाह करना अक्षम्य है। वीरान घर को देख बहू की व्यावहारिक बुद्धि ने त्वरित काम किया। ससुर को पुनर्विवाह के लिए मनाया। उनकी उम्र ही क्या थी। कुल जमा 41 बरस की। ये उमर तो इस जमाने में सैटिल होने की होती है। समझदार बहू ने कमर कसी और आस-पास के गाँवों के साथ-साथ सारे रिश्तेदारों को लड़की ढूंढने की जिम्मेदारी दी। हमारे समाज में लड़कियां लोगों की गले की फांस बनी रहती है, जैसा मिला ब्याह दिया। कन्यादान का फल ही तो माँ-बाप को वैतरणी पार करवाता है। दुहेजू हो चाहे पक्की उम्र का, गरीब की लड़की का कल्याण हो ही जाता है। अन्तत: नजदीक के गांव में 24-25 साल की एक गूंगी लड़की से सुधा के ससुर ने ब्याह कर लिया। मंदबुद्घि, गूंगी सांस के आने से घर में मौजूद विधवा बहू का प्रभुत्व कम होने का प्रश्न ही नहीं था। दुनियादार ससुर की संवेदनाएं बहू के साथ हमेशा रही, दिपदिपाती जवान रूपवती बहू का मन रमाने के लिए घर-परिवार का स्वामित्व बहुत छोटी चीज थी। अब ससुर थे घर के मालिक और बहू घर की बेताज मालकिन। खेत और घास-लकड़ी का काम करने के लिए गूंगी और लाटी सास के रूप में घर की मालकिन को एक बौलेर (मजदूरन) मिल गई। मालकिन बनी बहू नई नवेली सास को लाटी कहकर बुलाती।

गृहस्थी में रौनक लौट आई। एक साल बाद लाटी ने दन से एक बेटा जना। लाटी बच्चे की बेकद्री करेगी, ऐसा कह कर बहू ने लाटी की सौरी से ही बच्चा झटक लिया और फिर कभी नहीं लौटाया। लाटी का दूध पिलाने से बच्चा लाटा हो जाता। इसलिए एक दुधारू गाय पाल ली। सद्य प्रसवा लाटी गाय के लिए घास काटने जंगल जाती और अपने बच्चे के हिस्से का दूध स्तनों से निचोड़-निचोड़ कर मिट्टी में गिराती। लाटी की लाई घास खाकर गाय दूध देती और उसी दूध से बच्चा पलता रहा। घर की मालकिन बच्चे को पलभर के लिए आँखों के सामने से हटने न देती। लाटी ब्याह के बाद से ही ओबरे (गोठ) में रहती थी। परिवार के सदस्य की मान्यता उसे नहीं थी, वह बच्चा जनने के लिए लाई गई थी। अब उसका बच्चा जनने का काम पूरा हो गया, उसकी जरूरत भी खत्म हो गई। लाटी केवल दूर से ही बच्चे को देख सकती थी। उसके लिए बच्चे पर हाथ लगाने की सख्त मनाही थी। हाँ, इतना जरूर था कि घर का मालिक रात-बेरात लाटी के शरीर को झकझोरने गोठ में जरूर पहुँच जाता।

लाटी के शुरू से ही बुरे दिन थे। उसे जिस काम के लिए लाया गया था वह पूरा हो गया और एक दिन लाटी भी मर-खप गई। घर में बचे घर के प्रौढ़ मालिक, विधवा जवान मालकिन और वंश की बेल बच्चा।

जिस औरत ने मर्द का सुख नहीं पाया, वह माँ बन गई, वह भी बेटे की माँ। लाटी का लाटापन उसको सौगात दे गया और ससुर ने उसे घर की मालकिन बना दिया। बच्चे का क्या, जो लाड करे वही माँ। भरा-पूरा खुशहाल परिवार। महेश नाम के इसी लड़के से हुई थी सुधा की शादी। सीधी लीक पर चलने वाली सुधा अपनी जिठानी और उसके लाडले देवर का दिल नहीं जीत पाई। ऊँची कद-काठी के मिलिट्री मैन को घुन्नी, शर्मीली, पांचवीं पास सुधा अपने लायक ही नहीं लगी और फिर सुधा की जिन्दगी फुटबाल की तरह हो गई। इधर से ठोकर लगी दूसरी तरफ चली गई, उधर से लात लगी इधर लुढ़क गई। उसके माँ-पिताजी कपड़े, लो, तेल, साबुन देकर ससुराल भेजते। एक-दो महीने बाद सामान खत्म हो जाने पर वह फिर वापिस मायके आ जाती।

सुधा के आने-जाने को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। मायके पहुंचने के दो चार-दिन बाद ही लोग पूछने लगते, कितने दिन के लिए आई, कब जायेगी? ऐसे में सुधा के माँ-बाप के ऊपर सामाजिक दबाव रहता। उन्हें बेटी की वेदना से अनजान बना रहना ही सुविधाजनक लगा। एक बार उन्होंने सुधा को छह महीने तक ससुराल नहीं भेजा। उधर से न कोई जवाब आना था न ही आया। सुधा ने वहां भी दिन-रात काम किया, दो समय खाना मिला। यहां भी दिन-रात काम तो करना पड़ता। पहाड़ की बेटियां मां-बाप पर कम ही भारी पड़ती हैं। बारहों महीनों घास-लकड़ी लाना और खेती के काम को कई हाथों की जरूरत पड़ती है। एक दिन सुधा की अपनी भाभी से कहा-सुनी हो गई, उसने सीना ठोककर कहा कि मेरे लिए दोनों घर एक जैसे ही हैं, मुझे तो दोनों ही घरों में हाड़-मांस तोड़ कर रोटी मिलती है। इसलिए मैं ससुराल में ही रहूंगी। इस बार जब वह ससुराल गई तो फिर कभी नहीं लौटी। सुना है, सुधा के मरने के बाद शास्त्री चाचा जी किसी भी तरह की कार्यवाही करने को तैयार नहीं हुए। बेटियों के लिए कैसा इंसाफ। थकाऊ  न्याय व्यवस्था में इंसाफ मिलना क्या आसान होता है? लम्बी चलने वाली जटिल कानूनी प्रक्रियाओं से सामान्य आदमी बच-बच कर ही निकलना चाहता है। सुधा बिना जीवन जिये मर गई। न उसकी जिंदगी की कीमत थी न उसका कोई अस्तित्व था। हजारों-लाखों औरतों की मानिन्द अनचाहे पैदा हुई, अनचाही पली और बिना किसी शिकायत के खत्म हो गई। जिस समाज में औरतों का जन्म लेना ही गुनाह हो वहां कैसी शिकायत और किससे शिकायत।

अभी तो औरतें आंसुओं के रेगिस्तान में सोते ढूंढ रही हैं।
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