अस्कोट-आराकोट अभियान

उमा भट्ट

25 मई से 8 जुलाई तक 45 दिन की उत्तराखण्ड के सुदूरवर्ती गाँवों की पैदल यात्रा पिथौरागढ़ जिले के अस्कोट (पांगू) से प्रारम्भ होकर उत्तरकाशी के आराकोट नामक गाँव तक चलती है। इसलिए इस यात्रा का नाम है- अस्कोट-आराकोट अभियान। यानी पूर्व में नेपाल सीमा पर काली नदी के किनारे से पश्चिम में हिमाचल सीमा पर पब्बर नदी के किनारे तक। कई बुग्यालों, नदियों, दर्रों को पार करती हुई यह अत्यन्त दुर्गम यात्रा 1974, 1984, 1994 तथा 2004 के बाद पाँचवीं बार 2014 में सम्पन्न हुई। यात्रा में हर तरह के व्यक्ति शामिल रहे। कुछ की भागीदारी 1-2 दिन तक रही तो कुछ 45 दिन तक निरन्तर चले। अपनी सुविधानुसार यात्री 8,10,15,20 दिनों के लिए आते-जाते रहे। कुछ के लिए यह पहली यात्रा थी तो कुछ लोग दूसरी, तीसरी, चौथी या पाँचवीं बार यात्रा कर रहे थे।

पिछली यात्राओं की तुलना में 2014 में महिलाओं संख्या अधिक रही। 1974 में कोई महिला यात्री दल में नहीं थी। 1984 में राधा कुमार तथा गोपा जोशी दो महिलाओं ने यात्रा की थी। 1994 में ….. थीं। 2004 में बसन्ती पाठक, दीपा जोशी, भगवती बोरा, रुपिन, प्रभा रतूड़ी, गीता गैरोला इसमें शामिल हुईं। इस बार की यात्रा में लगभग 50 महिलाएँ शामिल हुईं। संख्या के साथ दिनों की अधिकता भी रही। 30, 25, 20 दिन से लेकर एक-दो दिन तक की भागीदारी महिलाओं की रही। 82 वर्ष की पामेला चटर्जी अंतिम तीन-चार दिन साथ रहीं तो 21 वर्ष की अंजलि जोशी शुरू के सप्ताह में यात्रा में थी। सुषमा नैथानी अमेरिका से इस यात्रा में शामिल होने आई थी तो पूर्व ग्राम प्रधान भगवती बोरा बेतालघाट (नैनीताल) से। जे. एन. यू. की शोध छात्राएं भी यात्रा में थीं। प्रसिद्ध पर्वतारोही चन्द्रप्रभा ऐतवाल ने भी उत्तरकाशी और आराकोट में यात्रा में शामिल होकर यात्रियों का गौरव बढ़ाया। अस्कोट-आराकोट अभियान यात्रापथ की कठिनाई महिलाओं को भागीदारी से हिचकिचाती थी पर दुर्गम हिस्सों में भी महिलाओं ने यात्रा की। इससे इस पथ की दुर्गमता यद्यपि कम नहीं होती पर महिलाओं की हिचक अवश्य टूटी।

यह भी एक विचारणीय प्रश्न था कि यात्रियों का नजरिया महिलाओं के प्रति और महिला मुद्दों के प्रति कैसा था? हमें गाँवों में रहना था। भोजन और निवास के लिए उन पर निर्भर रहना था। कई जगह ऐसी स्थिति थी कि सुबह नाश्ते के लिए जिस व्यक्ति ने हमें आमंत्रित किया है, उनके घर में उनकी पत्नी अकेली हैं। पति को यात्रियों की आवभगत करनी है और पत्नी ने 14-15 जनों के लिए रोटी-सब्जी तैयार करनी है, परोसनी है अ‍ैर बाद में बर्तन भी साफ करने हैं। यात्रीदल के पुरुषों को इसमें कुछ भी अनुचित नहीं लगता था, जबकि महिलाएं भरसक रसोई में जाकर मदद करने लगती थीं। कुछ पुरुष साथी भी आ जाते थे पर कुछ को यह अहसास ही नहीं होता था कि अकेली महिला कैसे करेगी। यही हाल अपने जूठे बर्तन धोने का भी था। बार-बार आग्रह करने पर बाद में यह स्थिति बनी कि सभी यात्रियों ने अपने जूठे बर्तन स्वयं धोने शुरू कर दिये। कई स्थानों पर यात्री महिलाएं भोजन-व्यवस्था में जुट जाने के कारण बातचीत में शामिल नहीं हो पाईं।

यह देखा गया कि हर गाँव में महिलाओं ने शराब के प्रति नाराजगी प्रकट की। पुरुषों ने भी कहा, लेकिन महिलाओं का आक्रोश शराब के लिए बहुत था। लेकिन यात्रीदल ने अन्य मुद्दों को तरजीह दी। आपदा, कीड़ाजड़ी, पलायन, शिक्षा आदि मुद्दों का सभाओं, बैठकों पत्रकार वार्ताओं में बराबर उल्लेख हुआ। शराब का मुद्दा सनातन होने से घिसा-पिटा-सा हो गया। खल्ला गाँव (जिला- चमोली) में भोजन से पहले जब सभा हो रही थी तो महिला मंगल दल की अध्यक्ष तथा एक-दो अन्य महिलाओं ने भी अपनी बात रखी। वे बोलीं कि दारू खत्म होनी चाहिए। महिलाओं में दारू के लिए बहुत गुस्सा है। यहाँ गाँवों में कच्ची शराब बनती है और गोपेश्वर से देशी व अंग्रेजी पहुँच जाती है। महिलाएं प्रतिबंध लगाती हैं तो कुछ दिन के लिए रुक जाती है, पर फिर वही स्थिति हो जाती है। प्रशासन बिल्कुल सहयोग नहीं करता। सरकार बिल्कुल भी समझना नहीं चाहती। यह खल्ला की ही नहीं, उत्तराखण्ड के गाँव-गाँव की स्थिति है। ऐसा लगता है कि सरकार तो क्या जनता भी अपने विनाश को नहीं समझना चाहती। पाणा (चमोली) गाँव के महिला मंगल दल की अध्यक्षा जमुना उम्र में कम होने के बावजूद अपने गाँव में शराब बन्द कराने के लिए कटिबद्ध थी। जीतू बगड़वाल की पूजा के अवसर पर किसी व्यक्ति के द्वारा शराब पीकर हंगामा करने से वह बहुत बौखलायी थी और मंदिर में पुजारियों से बहस कर रही थी। अ.आ.अ. की सभा के दौरान भी उसने यह बात उठाई और अपना संकल्प व्यक्त किया।

यात्रा में महिलाओं से एकदम सम्पर्क करना कठिन होता था। बाजार-कस्बों में या सड़कों पर जो सभाएं हुईं उनमें महिलाओं का होना मुश्किल होता था। गाँव के आँगन या पाठशाला/विद्यालयों में हुई बैठकों में महिलाएं रहती थीं पर औपचारिक रूप से एकाएक बोलने में हिचकती थीं। अनौपचारिक रूप से वे व्यवहारकुशल तथा निस्संकोच बात करने वाली थीं। जंगल से लकड़ी लाती हुई, खेतों में काम करती हुई महिलाओं से चलते-चलते बातें करने में कोई कठिनाई नहीं थीं। अगर हम नहीं बोलते तो वे खुद ही हमें सम्बोधित कर बातचीत शुरू कर देती थीं। कहाँ जा रहे हो, कहाँ से आये हो, बैठो, घर चलकर चाय पी जाओ, खाना खा जाओ, आज यहीं रहो, कल चले जाना, आादि-आदि।
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अस्कोट-आराकोट अभियान के हमारे वे साथी जो पिछली यात्राओं में भी रहे, बार-बार इस बात को कह रहे थे कि पिछली बार से अब काफी परिवर्तन दिख रहा है। सड़कें गाँवों के निकट पहुँच चुकी हैं। लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से गाँव अभी भी दिक्कत तलब हैं। महिलाओं का ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से गिरना और रीढ़ की हड्डी में चोट आना, यह कई गाँवों में सुनाई दिया। करछी (चमोली) की 45 वर्षीया बीना, जो तीन बार पेड़ से गिर कर चोटिल हो चुकी हैं, कहती हैं कि सारा खून निचुड़ गया है। 45 वर्ष की उम्र में वह 70 वर्ष की लगती हैं। कनौल (चमोली) की यशोदा भी पेड़ से गिरने के कारण लगातार पीठ दर्द की शिकायत से ग्रस्त रहती हैं। श्वेत प्रदर और पथरी की शिकायत भी आम है। ऑपरेशन द्वारा गर्भाशय निकालने की घटनाएं भी कई गाँवों में सुनने को मिलीं। प्रसव के दूसरे-तीसरे दिन से काम पर जाने से गर्भाशय खिसकने की वजह से बाद में निकालना पड़ता है। महिलाओं की बीमारियाँ क्या हैं? पूछने पर गाँव के लोग कहते हैं- काम की अधिकता ही उनकी मुख्य बीमारी है। सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक वे काम करती हैं। लकड़ी, चारा, पानी, खेती, पशु, भोजन, बच्चे सबकी व्यवस्था करनी पड़ती है। आराम नहीं है। अस्पताल दूरी पर है। वहाँ तक पहुँचना कठिन है। पहुँचने पर भी इलाज मिलना कठिन है क्योंकि उत्तराखण्ड के जिला मुख्यालयों के अस्पतालों में भी डॉक्टर, परीक्षणों की सुविधा और दवाइयाँ सभी अनुपलब्ध हैं। उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी  ने एक गीत में लिखा था- माँ बैण्यू को दुख सड़क्यों माँ- यानी माँ-बहनों का दुख भी सड़क पर जुलूस में आ गया है। अआअ के हमारे साथी प्रकाश उपाध्याय कहते हैं कि माँ-बहनों का दुख जो हम बचपन में देखते थे और जिसे भूल चुके थे, इस यात्रा में फिर उससे साक्षात्कार हुआ और अधिक गहराई से महसूस हुआ। तो क्या कहा जाए कि इन 40-50 वर्षों में माँ-बहनों के कष्ट वैसे ही हैं, जैसे थे। विकास तो हुआ पर उनके हाथों का काम, पैरों के चक्कर और पीठ का बोझ तो कम नहीं हुआ।

यद्यपि बहुत-सी नई-पुरानी सरकारी योजनाएँ हैं सभी के लिए और महिलाओं के लिये भी पर उनका लाभ सबको मिल सके यह सम्भव नहीं है। 10 दिन तक अ.आ.अ. में शामिल रही भगवती बोरा महिलाओं से पहला प्रश्न पूछती थी कि प्रसव कहाँ होते हैं? घर में या अस्पताल में। ए.एन.एम. आती है या नहीं? आशा कार्यकर्ता क्या-क्या बताती है तुमको? जननी सुरक्षा योजना का लाभ मिलता है या नहीं, किशोरी लड़कियों को टीका लगता है या नहीं? नसबंदी कौन कराता है पति या पत्नी? उत्तर प्राय: सन्तोषजनक नहीं होते थे। ए.एन.एम. को अगर गाँव में पैदल आना पड़े तो वह कितनी बार आयेगी? गाँवों में न रहकर आस-पास के कस्बों, शहरों से आवागमन करने की सरकारी कर्मचारियों की रीत ने ग्रामीण समाज को बहुत नुकसान पहुँचाया है जिसके घातक परिणाम हो रहे हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा दो उद्देश्यों के लिये गाँवों से सपरिवार पलायन शुरू हो गया है। मई-जून में जब यह यात्रा की जा रही थी, बहुत से बच्चे-बच्चियाँ, बहुएँ गाँव में थीं जो छुट्टियाँ होने से तथा गाँव में काम का समय होने से आये हुए थे। जुलाई आने तक उन सबने आस-पास के कस्बों में किराये के कमरों में चले जाना था।

परिवर्तन का एक और उदाहरण यह मिला कि लड़कियों का शिक्षा में प्रतिशत बढ़ा है और प्रायमरी पाठशालाओं में इन गाँवों में जो उत्तराखण्ड के दूरस्थ और ऊँचाई वाले क्षेत्रों के हैं, लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक है। लड़के-लड़कियों का 40-60 का अनुपात है। लड़कियाँ स्कूल छोड़कर बैठी हों, ऐसा उदाहरण कोई नहीं मिला। लड़कियाँ पढ़ाई में बहुत अच्छा कर रही हैं, यही लोगों के मुख से सुनने को मिला। वे घर के काम में हाथ बँटाते हुए पढ़ाई कर पाती हैं। 10-10 किमी. की दूरी से घास-लकड़ी लाने और 70 प्रतिशत तक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं से यात्रियों की मुलाकात हुई। उनके लिए इन्टर के बाद की पढ़ाई का प्रश्न भी था। रोजगार में भी पहले की तुलना में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ा है। प्राय: अध्यापन कार्य में महिलाएँ अधिक दिखाई दीं। शिक्षा और रोजगार के कारण ही आत्मविश्वास से भरपूर लड़कियाँ यात्रा मार्ग में मिलीं। इन्टरमीडिएट के बाद की शिक्षा या तकनीकी शिक्षा के लिये परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुसार वरीयता लड़कों को ही दी जा रही है। लड़कियों के रास्ते यदा-कदा ही खुलते हैं। मेधावी और परिश्रमी होने पर भी उनके लिए विवाह का विकल्प ही रह जाता है।

विवाह की उम्र पूछने पर सभी ने कहा कि 18 से ऊपर लेकिन ऐसा नहीं है कि 18 से कम उम्र की लड़कियों की शादी न हो रही हो पर लोगों ने स्वीकार नहीं किया। नसबन्दी पति नहीं पत्नियाँ ही करा रही हैं। पुरुषों के लिये नसबन्दी कराना कम तकलीफदेह है पर पुरुष कराना नहीं चाहते और अफवाहें फैलाई जाती हैं कि दिल की बीमारी हो जाती हैर्। ंलगभेद के अनेक उदाहरण मिले। 2013 की आपदा के लिए भी लोगों ने कहा कि छिपला केदार के मंदिर में महिलाएँ गईं इसलिए आपदा आई या 2000 की राजजात यात्रा में महिलाओं के शामिल होने से आपदा आई। 2000 से पूर्व बेदिनी बुग्याल तक ही महिलाओं को जाने की इजाजत थी। कीड़ा जड़ी के लिए बुग्यालों में पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के जाने पर भी आपत्ति की जा रही थी कि इससे बुग्यालों में दुराचार फैलेगा। बुग्यालों में जूनिपर की झाड़ियाँ नष्ट करके जलाई जा रही हैं। भीड़ बड़ रही है, खुदान हो रहा है, टैण्ट गाड़े जा रहे हैं, ऐसिड डालकर बर्फ पिघलायी जा रही है ताकि कीड़ा जड़ी मिल जाय। इन पर तो आपत्ति नहीं है लेकिन महिलाओं के जाने पर आपत्ति प्रकट की जा रही है। कीड़ा जड़ी के दोहन पर तो पूरी समीक्षा होनी चाहिए। हालांकि 13-14 साल की लड़कियों से लेकर 40-45 साल की महिलाएँ भी बुग्यालों में कीड़ा जड़ी के लिए गई हुई मिलीं। यह भी कहा जा रहा था कि कीड़ा जड़ी से प्राप्त पैसा पुरुषों के हाथ में आया तो शराब पर व्यय हो रहा है और महिलाओं के हाथ में आया तो गहने जेवर बन रहे हैं।
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दूरस्थ दुर्गम क्षेत्रों तक तो नहीं, लेकिन सड़क मार्ग के निकटस्थ गाँवों में एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं। उन्होंने महिला समूह बनाये हैं, जो बचत करते हैं। इस तरह महिलाओं के पास अपना एक कोष तैयार होता है। एन.जी.ओ. और उनके कामों से ऐसे गाँवों की महिलाएँ परिचित थीं। महिला मंगल दल तो हमें दूर-दूर के गाँवों में भी मिले और महिला मंगल दल की अध्यक्षा भी हर गाँव में मिली। इस पद को वे अपने लिए बड़ी जिम्मेदारी का समझती हैं। कहीं-कहीं बैठकें होती हैं और कहीं नहीं भी होतीं। यात्रियों के स्वागत-सत्कार की जिम्मेदारी भी वे महसूस कर रही थीं। ग्राम प्रधान के समान ही मंगल दल की अध्यक्षा भी गाँव में दिखाई दे रही थी। गोपेश्वर के निकट के गाँव वणद्वारा में महिला मंगल दल की अध्यक्षा प्रेमकला जी के घर में हमने दिन का भोजन किया। प्रेमकला प्रबुद्ध स्त्री हैं। यात्रियों से बातें करने की इच्छुक हैं। बणद्वारा में जाखेश्वर शिक्षण संस्थान तथा ए.टी.आई. संस्थाएँ काम करती हैं। 8 मार्च 2013 को बणद्वारा में तीन-चार गाँवों की लगभग 400 महिलाओं ने मिलकर महिला दिवस मनाया जिसमें विधायक तथा जिलाधिकारी को आमंत्रित किया गया। प्रेमकला का कहना था, हम शहरों में जा सकते हैं तो शहर वालों को भी हमारे गाँवों में आना चाहिए। पिछले वर्ष वन पंचायत की सरपंच सरोजिनी राणा की पेड़ से गिरकर मृत्यु हुई तो प्रेमकला जी ने वन पंचायत का दायित्व भी एक माह तक सम्भाला फिर सरपंच का चुनाव हो गया। इस बार ग्राम प्रधान के लिए महिला सीट आरक्षित थी। गाँव के लोग चाहते थे कि प्रेमकला उम्मीदवार बनें पर परिवार की रजामंदी न होने से वे नहीं खड़ी हुई। प्रेमकला का कहना है कि महिला मंगलदल की अध्यक्षा के लिए भी मानदेय होना चाहिए क्योंकि उनको भी कई काम करने पड़ते हैं तथा आना-जाना पड़ता है। सर्वे फार्म भरने में भी प्रेमकला ने रुचि दिखाई। 2015 के महिला दिवस में आने का वायदा भी उन्होंने ले लिया।

चोपता से नीचे मक्कूमठ (रुद्रप्रयाग) की ओर जाते हुए हमें आन्दोलनकारी सुशीला भंडारी का साथ मिला। दुबली-पतली मझोले कद की सुशीला के अनुभव बहुत हैं। रुद्रप्रयाग में बड़े बाँधों के खिलाफ उन्होंने कंपनी व सरकार दोनों से टक्कर ली है और 60 दिन तक पौड़ी जेल में रही हैं। अभी भी कई मुकदमे झेल रही हैं। बातें करने का ढंग ठेट पहाड़ी है। वे नदी परियोजनाओं के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बन गई हैं पर उस दिन चोपता से मक्कू मठ तक की पैदल यात्रा में खूब तेज चाल से चलते हुए सुशीला ने आन्दोलन की बातें न करके खूब गीत सुनाये- रामलीला के गीत, भजन, लोकगीत और रामी बौराणी का पूरा गीत। सुशीला के साथ हँसते-गाते उस दिन हम चलते रहे सड़क-सड़क।

45 दिन की इस पद यात्रा में जबकि हम औसतन 20-25 किमी. प्रतिदिन चलते थे, आतिथ्य में कहीं कमी नहीं रही। महिलाएँ आदर-सत्कार करने में बढ़चढ़कर थीं। 12 से लेकर 30-35 और कहीं तो 50 तक भी संख्या यात्रियों की हो जाती थी। अधिकांश गाँवों में महिलाओं ने ही हमारे लिये भोजन बनाया। उन्होंने गीत गाये। झोड़ा, चाँचरी, तांदी, नृत्य लगाया। भावभीनी विदाई दी। खवाणा (टिहरी) गाँव के मास्टर साहब पूर्व प्रधान —— घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी और बहू थे। पहले भी उस घर में भोजन किया था अत: यात्री उसी घर के आँगन में पहुँचे। वे न घबराईं, न संकोच किया। घर के बड़े से आँगन से लगे बरामदे में सब बैठे। चाय पिलाई और भोजन की तैयारी में दोनों सास-बहू जुट गईं। गाँव के अन्य लोगों को भी बुला लिया। हमारी मण्डली जब भोजन कर रही थी, तब उनके पति लौटे। पौरा (उत्तरकाशी) गाँव की महिलाओं ने विदा के समय हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया और आप लोग हमारे गाँव में आये आपका धन्यवाद कहकर हमें शर्मिंदा भी किया और कृतार्थ भी। नारायण कोटि मंदिर (रुद्रप्रयाग) के पास पानी के धारे में आयी महिलाओं के घर चलकर चाय पीने के आग्रह को हम बड़ी मुश्किल से मना कर पाये। अस्वस्थ व अकेले होने के बावजूद ब्रह्मपुरी (उत्तरकाशी) की श्रीमती सेमवाल को इतने लोगों को खिलाने में कोई आपत्ति नहीं हुई। बिर्थी गाँव (पिथौरागढ़) की महिलाओं ने रात को भोजन कराया, सुबह नाश्ता कराया और रास्ते के लिए सब्जी-पूड़ी भी रख दीं और रात में देर तक झोड़ा-चाँचरी भी लगाई। पाणा (चमोली) में भी महिलाओं ने दूसरे दिन के लिए प्रति व्यक्ति चार-चार रोटी के हिसाब से पाथेय रख दिया क्योंकि क्वारी पास पार करना था और रास्ते में कहीं भोजन नहीं मिलना था। पाणा की जमुना, झिंझी की सरोजिनी और देवेश्वरी, खवाणा की ….., वैरांगना की प्रेमकला, पौरा की महिलाएँ- तो कभी भुलाई नहीं जा सकतीं। महिलाओं के उदास चेहरे मिले तो उत्फुल्ल दमदार व्यक्तित्व भी मिले। उन हँसमुख, कर्मठ, धैर्यवान महिलाओं से मिलकर पहाड़ की महिलाओं के प्रति श्रद्धा बढ़ गई।

बौड़ि बौड़ि ऐगे ऋतु डांड्यों मा चौमास
तेरा बिना मेरी माँजी मैं ह्वैग्यां उदास।
बुति जाली राई माँजी बुति जाली राई
मैं कू लाड़ी बेटी दिनी यूँ पाणा ईराणी।
खाणि जावो माटो माजी खड़ी जायो माटो
दूर चौसे दुरि मौजी उकालिको बाटो
बुनिजालो माणो माँजी बुनिजालो पाणी
जब तेरि याद ऊँछी नि घुंटैदू खाणो
विजयालक्ष्मी ने गाया झिंझी में 10 जून 2014 को उनके घर में खाना खाया, देवेश्वरी की देवरानी ने।
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