आसमा जहाँगीर: मानवाधिकार के लिए एक बुलन्द आवाज

किरन त्रिपाठी

       भारतीय उपमहाद्वीप में चुनिंदा शख्सियतें रही हैं, जो भारत-पाकिस्तान सहित अन्य पड़ोसी देशों में भी प्रगतिशील लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वालों के बीच लोकप्रिय हें और सत्ताधारी ताकतों के लिए चुनौती भी। जनवरी 1952 को लाहौर के एक सम्पन्न परिवार में जन्मी आसमा जिलानी जहांगीर (27 जनवरी 1952-11 फरवरी 2018) एक ऐसा ही नाम था। उनके पिता मलिक जिलानी एक सरकारी कर्मचारी थे, जो बाद में राजनीति में आए और सैनिक तानाशाही  का विरोध करते हुए जेल गए। उनकी माँ ने सह शिक्षा द्वारा संचालित महाविद्यालय में उस समय शिक्षा ली, जब कई महिलाएं शिक्षा से वंचित थीं। आसमा ने किन्नार्ड महाविद्यालय से कला में स्नातक की उपाधि ली। उन्हें स्विट्जरलैण्ड की गेल्ले यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि मिली। पंजाब विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री लेने वाली आसमा पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की पहली महिला अध्यक्ष थीं। उन्होंने आजीवन पाकिस्तान और भारतीय उपमहाद्वीप में आम जन के अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष किया। लंबे समय से फौजी शासन के अधीन रहे पाकिस्तान में आसमा जहांगीर लोकतंत्र के लिए संघर्षरत प्रमुख आवाजों में से एक थीं।

एक घोषित इस्लामी देश में जहां अधिकांश समय फौजी शासन रहा और फौज के खिलाफ विरोध की किसी भी आवाज को सख्ती से कुचल दिया जाता था, यहां तक कि फौजी जनरलों द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों का लगातार तख्ता पलट किया जाता था, ऐसी परिस्थितियों में आसमा जहांगीर के द्वारा नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना कितना कठिन रहा होगा, इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इन कठिन परिस्थितियों से मुकाबला करते हुए वह अपनी आवाज बुलंद करती रहीं। इसका उदाहरण कुछ समय पहले पाकिस्तानी फौज के बारे में उनकी निर्भीक टिप्पणी से मिलता है, जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी फौज को सत्ता में कब्जा करने वाले एक गुट के रूप में बताया और इस बात को स्पष्ट रूप से कहा कि वहां की फौज का आम सिपाही पाकिस्तानी जनरलों का मोहरा भर है, जो कि ऐशो-आराम की जिंदगी के आदी हो चुके हैं। हाल ही में भारत और पाकिस्तान के बीच विवादित कुलभूषण जाधव के मामले में भी आसमा जहांगीर ने निर्भीकता से अपनी राय रखते हुए कहा कि कुलभूषण जाधव को भारत को न देकर पाकिस्तान बड़ी गलती कर रहा है। ऐसा करके वह अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन तो कर ही रहा है, भारतीय जेलों में बंद पाकिस्तानी कैदियों के लिए मुश्किलें भी खड़ी कर रहा है।
(Ashma Jahangir a voice for human rights)

भारत और पाकिस्तान के शासकों के बीच लगातार तनाव और युद्घोन्माद भड़काए जाने की वह सख्त विरोधी थीं। यही नहीं, एक ओर जहां वह पाकिस्तान में फौजी तानाशाही और कट्टरवाद से लड़ रही थीं, भारत में भी उन्होंने मानवाधिकारों पर हो रहे हमलों और बढ़ती सांप्रदायिकता और कट्टरता के खिलाफ आवाज बुलन्द की तथा यहां की प्रगतिशील जनवादी ताकतों का समर्थन किया। बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय हो या फिर गुजरात में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगे, आसमा जहांगीर ने लगातार अपना प्रतिवाद दर्ज किया।

अपनी इसी विद्रोही प्रकृति के कारण आसमा पाकिस्तानी सेना और शासकों के निशाने पर रहीं। उन्हें जान से मारने की कोशिशें भी हुईं और कई बार वह गिरफ्तार भी हुईं, लेकिन मानवाधिकारों के लिए लड़ने के उनके जज्बे में किसी प्रकार की कमी नहीं आई। जिया उल हक के शासनकाल में ईश निंदा कानून लागू किए जाने का मामला हो या फिर 1983 में 13 साल की अंधी लड़की सफिया को न्याय दिलाने का संघर्ष, हमेशा सभी मामलों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। उन्होंने जिया उल हक के सैन्य शासन के खिलाफ चले ‘मूवमेंट ऑफ रेस्टोरेशन ऑफ डेमोक्रेसी‘ में भी आगे बढ़कर अपनी भूमिका निभाई, जिस कारण 1983 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 2007 में फौजी शासक परवेज मुशर्रफ के शासनकाल में भी उनको गिरफ्तार किया गया। इस सबसे बेपरवाह आसमा पाकिस्तान के मानवाधिकारों के इतिहास में एक के बाद एक ऐतिहासिक इबारतें लिखती रहीं। लोकतांत्रिक प्रगतिशील मूल्यों और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आसमा को विभिन्न सम्मानों से भी नवाजा गया। इनमें राईट लाइवलीहुड एवॉर्ड, हिलाल ए इम्तियाज, और सितारा ए इम्तियाज जैसे कुछ प्रमुख सम्मान शामिल थे। उन्हें पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत में जज बनाए जाने तथा पंजाब का गवर्नर बनाए जाने का प्रस्ताव भी दिया गया, लेकिन उन्होंने अपनी स्वतंत्र आवाज और संघर्षों को प्राथमिकता देते हुए इन प्रस्तावों को स्वीकार करने से इंकार कर दिया।  
(Ashma Jahangir a voice for human rights) 

अपने आरम्भिक दिनों में पंजाब विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा हासिल करने के बाद आसमा वकालत में आ गईं थीं और वकालत के साथ-साथ पाकिस्तान में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष में जुट गर्इं। वह पाकिस्तान में ‘ह्यूमन राइट्स ऑफ पाकिस्तान‘ की सह संस्थापक रहीं और बाद में उसकी अध्यक्ष भी बनीं। 1986 में वह जिनेवा स्थित ‘डिफेंस फॉर चिल्ड्रन इंटरनेशल‘ की उपाध्यक्ष नियुक्त हुईं। कुछ समय बाद पाकिस्तान लौटने पर फिर संघर्षों में जुट गईंऔर नवाज शरीफ के शासनकाल में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को अपदस्थ किए जाने के खिलाफ उन्हें बहाल करने के लिए चले वकीलों के आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की। इसके बाद जब पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट द्वारा नवाज शरीफ की चुनी हुई सरकार में प्रधानमंत्री के रूप में नवाज को अयोग्य घोषित किया गया तो आसमा ने कोर्ट की इस न्यायिक सक्रियता की निर्भीक आलोचना की।

एक ऐसे देश में जहां नागरिक अधिकारों को लगातार फौजी बूटों तले कुचला जाता रहा हो और इस्लामीकरण के नाम पर महिलाओं को पर्दे में रखे जाने का प्रयास और रोशनी से दूर रखने की कोशिशें की जाती रही हों, वहां लगातार  आम जन, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के लिए संर्घषरत रहना एक महिला के लिए कितना कठिन रहा होगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आसमा जहांगीर इस उपमहा़द्घीप की जनता के लिए एक ऐसा चमकता सितारा थीं, जिसे इतिहास इस उपमहा़द्वीप में अमन और इंसाफ के संघर्ष के लिए हमेशा याद रखेगा। पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हामिद मीर की यह टिप्पणी उनके व्यक्तित्व को बखूबी बयां करती है-’’वह असमा किसी राज्य की नहीं बल्कि गरीबों और बेबस लोगों की ऐजेंट थी।‘’
(Ashma Jahangir a voice for human rights)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika