अपने ही लोग : कहानी

दिनेश पाठक

लड़की को मैं पहले से नहीं जानता था। शहर में उसे देखे की भी याद नहीं है। हालांकि यह इतना छोटा कस्बा है कि बिना परिचय के भी यहाँ सब एक-दूसरे को जानते हैं। पर एक तो मैं इस शहर में सालों बाद लौटा हूँ, दूसरे समय ने कुछ जरूरत से ज्यादा अन्तर्मुखी बना दिया है। घर से ऑफिस, ऑफिस से घर, दुनिया सिर्फ इतनी भर रह गई है। शहर भी पहले वाला नहीं रहा है, न उतना खुशगवार, न घूमने लायक। हर तरह से बदरंग हो चुका है। वे दोस्त भी नहीं रहे हैं। जो दो-चार हैं भी तो दोस्ती का पुरानावाला जज्बा शेष नहीं रहा। कह सकता हूँ कि इस शहर का पुराना वाशिन्दा होते हुए भी मैं नया था। दुबारा लौटने के बाद बहुत कम लोगों को जानता था। या कहूँ तो बहुत सारे लोगों को जानता ही नहीं था। उस लड़की को भी नहीं।

यूँ उसे लड़की कहना गलत था। वह कहीं भी लड़की नहीं थी, युवा उम्र से बाहर निकलती युवती थी। बेशक भरीपूरी देह वाली, माँसल, किन्तु रसभरी जवानीवाली दहलीज को अलविदा करती हुई। उम्र का ठीक-ठाक अन्दाजा लगाना मुश्किल था, तो भी तीस से कम की नहीं लगती थी। काया अपेक्षाकृत लम्बी थी, हर क्षण सीधी तनी हुई, चीड़ वृक्ष की तरह।

मैंने उसे अभी हाल-हाल में ही देखा था। एक सुबह अकस्मात मैंने पाया था कि मेरे पड़ोस की खाली पड़ी जमीन पर उगे हिसालू, किलमोड़ा और घिंगारु आदि की झाड़ियाँ काटी जा रही हैं। तो क्या यह जमीन किसी ने खरीद ली है? जाहिर है, ऐसा ही हुआ होगा। तभी तो पहाड़ी को काटकर समतल किया जा रहा था। यानी मकान बनाने की तैयारी हो रही थी।

युवती को मैंने यहीं देखा था। छाता लिए धूप में खड़ी और काम का निरीक्षण करती हुई। फिर तो वह अकसर ही दिखने लगी थी। लगभग रोज और बिना नागा। सुबह के वक्त थोड़ी देर के लिए एक वृद्ध भी दिखाई देते, हाथ में छड़ी लिए और हाँफते। उन्हें देखकर लगता था कि वे शायद श्वास के रोगी हैं। वे एक बार शाम को भी आते, पर तब वे अकेले नहीं होते थे। उनके साथ एक वृद्धा भी होती, धीरे-धीरे चलती हुई, लगभग घिसटती, लंगड़ाती। वे घुटनों के दर्द से परेशान लगती थीं। शायद दोनों पति-पत्नी थे। उन्हें देखकर साफ महसूस होता था कि उनकी जीवन नैया बहुत लम्बी यात्रा तय करने के बाद अब जर्जर हो चुकी है। उनके साथ एक प्यारी-सी बच्ची भी हुआ करती….. उनकी उँगली थामे चलती हुई। शाम के क्षणों में अकसर ही वे सब के सब वहाँ होते, वे चारों- वृद्ध, वृद्धा, वह युवती और बच्ची; लगभग एक साथ खड़े। उनमें कभी कोई संवाद होते नहीं दिखता था।

लेकिन ज्यादातर वहाँ युवती मिलती। छुट्टी के दिन जब मैं घर पर होता, उसे लगातार वहाँ खड़ा देखता। वह बैठती बहुत कम थी, नहीं के बराबर। मध्य मई की उस तेज धूप में जब सड़कें भी वीरान होतीं, मुहल्ला सोया हुआ, वह अपने प्लॉट पर मुस्तैद दिखती। अकेली, चुप। किसी छायादार कोने की आड़ लिए या सिर पर छाता ताने खड़ी। पहाड़ के समतलीकरण का काम पूरा हो चुका था और अब बुनियाद खुद रही थी। दोपहर में, जब मजदूरों के विश्राम का वक्त होता, वे सुस्ता रहे होते या नीचे चाय की दुकान की ओर निकल गये होते, तब इतनी देर के लिए वह भी छाया में बैठ जाती। पर्स से कोई किताब निकालकर पढ़ने लगती। पानी का एक बड़ा भरा हुआ कूलकैग उसके साथ होता। वह सदा ही कुछ इस तरह बैठी या खड़ी रहती कि मेरे मकान की ओर उसकी पीठ होती थी। अपने आँगन में आड़ू-खुबानी के पेड़ों की छाया में कुर्सी डाले, ठण्डी बयार का आनन्द लेते हुए मैं कभी अखबार के पृष्ठ पलटता तो कभी उसकी पीठ को निहारता रहता। मुझे उस पर आश्चर्य होता था। पिछले पन्द्रह-बीस दिनों से वह लगातार इस ओर आ रही थी, पर मजाल कि उसने हमारी ओर झाँककर भी देखा हो। पत्नी बुरा-सा मुँह बनाते हुए कहती, ”बड़ी घमण्डी जान पड़ती है। पता नहीं क्या समझती है अपने आपको!” उसकी प्रतिक्रिया पर मैं हँसता। युवती के बचाव की कोशिश करते हुए कहता, ”यह कैसे कहती हो तुम? क्या पता जरूरत से ज्यादा संकोची हो। अपरिचितों से एकदम मिलने का साहस न होता हो।” पत्नी मेरे कथन पर जिस तरह से मुस्कुराती, उस पर मैं झेंप जाता। कहता, ”देखो गीता, हमने भी तो कभी कोशिश नहीं की। क्या हम ही अपनी ओर से पहल नहीं कर सकते थे?…. आखिर पड़ोस में बस रही है वह, हमारा भी तो फर्ज बनता है। नहीं बनता क्या?”
(Apne Log Story)

पत्नी कुछ नहीं कहती। बस, बात यहीं खत्म हो जाती।

वह छुट्टी का ही कोई आरामभरा दिन था। बेहद तपता हुआ, जबकि पहाड़ में भी गरमी महसूस हो रही थी। पत्नी मूडी तो है ही। उस दिन अचानक बोली, ”मैं चाय बना रही हूँ। जाकर उस सामने वाली को भी बुला लाओ।” मैं हैरान। मुझे उस हैरानी में छोड़ती हुई वह खुद भीतर चली गई। मैं हक्का-बक्का समझ नहीं पाया कि क्या मन्तव्य है पत्नी का? कुछ पल किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा रहा। मैं इस आकस्मिकता के लिए कतई तैयार नहीं था। पत्नी पर झुँझलाहट भी हुई। कह दिया कि जाओ, बुला लाओ, जैसे यह कोई चुटकी बजाने का काम हो। असमंजस में फँसा मैं जस का तस बैठा रहा। सामने की ओर देखा तो वह अकेली थी, छाया में बैठी कोई किताब पढ़ती हुई। जाहिर था कि यह मजदूरों के विश्राम का वक्त था और वे सब शायद चाय पीने गये हुए थे। मैं उठा। मैंने साहस किया। सधे हुए कदमों से आँगन पार कर मैं उसके निकल पहुँचा। आहट पाकर वह चौंकी। गर्दन घुमाकर पीछे की ओर देखा। मुझे एकाएक और इस तरह अप्रत्याशित अपने सामने पाकर वह हड़बड़ाई। उसी हड़बड़ाहट को लिए उठ खड़ी हुई।

”नमस्कार!” मैंने हाथ जोड़े। ”मैं आपका पड़ोसी हूँ।” विमल….. विमल पाण्डे।” मैंने अपना परिचय दिया। उत्तर में उसने भी हाथ जोड़ दिए। पर बोली कुछ नहीं। सहमी-सी खड़ी रही। आँखें सामने थीं। र्गिमयों की धूल, धुन्ध से अच्छादित सामने की पहाड़ी को देखते हुई।

”कई दिनों से सोच रहा आपसे मिलूँ। कोई जरूरत, कोई सहयोग हो तो पूछूँ…..” मैंने बात का सिरा थामा। मैं रुका। मैं उसकी प्रतिक्रिया जानना चाहता था। प्रतिक्रिया जानने की कोशिश में ही मैंने उसके चेहरे की ओर देखा। वह बहुत गोरा चेहरा था, निश्चय ही कभी बहुत दमकता हुआ रहा होगा, किन्तु जिस पर अब हल्की-हल्की झाइयाँ खिंचने लगी थीं। उसने बहुत संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, ”जी, धन्यवाद।”

मैंने इधर-उधर देखा। यूँ ही। बिना बात। सीधे-सीधे चाय का प्रस्ताव करना ठीक नहीं लगा। पहले एक वाक्य में भूमिका बाँधी। कहा, ”लगता है यह मजदूरों के चाय का वक्त है।” फिर सीधे-सीधे मन्तव्य पर चला आया, ”बुरा न मानें तो तब तक आप भी अपने पड़ोसी की एक कप चाय स्वीकार करें….।”

”नहीं, धन्यवाद।” उसने पलक झपकने की भी देर नहीं की। वह बेहद ठण्डा लहजा था। सारे उत्साह की ऐसी-तैसी कर देने वाला। पर मैंने बुरा नहीं माना। वैसे भी, दो अपरिचितों के बीच पहले ही संवाद में ज्यादा अपेक्षा स्वाभाविक नहीं कही जा सकती। उस पर भी जब सामने वाली महिला हो तब तो कदापि नहीं। मैं हँसा। वातावरण को सहज रखते हुए कहा, ”अब देखिए, मना मत कीजिए। पत्नी ने बहुत आग्रह से आपको बुला भेजा है। कहा है, जरूर लेकर आएँ। वोऽ देखिए, चाय बनाकर आपका ही इन्तजार कर रही है।” मैंने उँगली के संकेत से उसे अपना आँगन दिखाया। पत्नी सच में इस ओर देख रही थी।
(Apne Log Story)

वह हिली। उसने अपना चेहरा हमारे आँगन की ओर घुमाया। आँगन में आड़ू-खुबानी से लदे हुए पेड़ थे। पेड़ों की शानदार छाया थी। छाया में आराम कुर्सियाँ थीं। शीतल, ठण्डी हवा बह रही थी और सबसे ऊपर पत्नी का इंतजार करती आँखें थीं।

”अब देखिए, इस आग्रह को ठुकराइए मत।” मैंने उसे शिथिल पड़ते देख दुबारा कहा। ”वैसे भी अब हम पड़ोसी हैं। सदा एक-दूसरे के साथ रहना है। प्लीऽज।….”

उस चेहरे पर असमंजस उभरा। पलभर उसी असमंजस में जूझती रही। फिर उसने घड़ी देखी, कुछ सोचा, जैसे कोई हिसाब लगा रही हो। अन्तत: किताब बंद कर उसने पर्स में रख ली। छाता उठाकर मेरे साथ हो ली।

पत्नी ने मुस्कुराकर उसका स्वागत किया। नमस्कार के बाद कुर्सी की ओर ले जाती हुई बोली, ”बैठिए!” युवती आज्ञाकारिणी बालिका की तरह चुपचाप बैठ गई। यंत्रवत। मई अन्त की उस कड़क धूप में आड़ू-खुबानी के पेड़ों की वह छाया, वह ठण्डी हवा, बेशक उसे भी अच्छी लगी। उसने पर्स से रुमाल निकाला। माथे पर उभर आई पसीने की बूँदों को पोंछा।

चाय कप में ढालती हुई पत्नी बोली, ”कितनी बार हमने सोचा कि आपको बुलाएँ। आखिर पड़ोसी होने जा रही हैं आप। अब जीवनभर एक-दूसरे के बगल में और साथ-साथ रहना है….।” चाय की प्याली भर चुकी तो उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ”लीजिए।”

बहुत संकोच के साथ उसने वह प्याला लिया। बोली कुछ नहीं। लगातार चुप ही बनी रही। खामोश। प्लाट पर भी वह अकसर खामोश ही खड़ी दिखती है। वहाँ भी उसे किसी से ज्यादा बोलते नहीं देखा है। मजदूरों से भी बहुत कम बोलती है।
(Apne Log Story)

चाय के बीच सन्नाटा पसरा रहा कुछ देर…. पर पत्नी को सन्नाटा सहन नहीं होता। एक पल भी नहीं। बहुत बोलने वाली है वह। बोलती रहती है लगातार। उसने सन्नाटे के फूलते गुब्बारे पर जैसे पिन चुभोई। उसकी ओर नमकीन-बिस्कुट की प्लेट बढ़ाती हुई बोली, ”येऽ भी तो लीजिए।”

युवती अचकचाई। अपने को समेटा। हकलाती-सी बोली, ”बस, और कुछ नहीं।”

फिर वही स्थिति। आँगन में बैठे तीन आदमी और बीच में पथराया सन्नाटा।

”हम लोग यहाँ बहुत पहले से रहते हैं।” पत्नी ने पसरते सन्नाटे को फिर से तोड़ा। ”यह मकान इनके पिताजी के वक्त का है। बीच में लगातार पन्द्रह साल हम लोग बाहर रहे। अभी सालभर पहले ही तबादला कराके लौटे हैं। ये कृषि विभाग में सहायक अधिकारी हैं। दो बच्चे हैं, पर आज दोनों ही अपनी मण्डली के साथ पिकनिक पर गए हैं…..” पत्नी ने अत्यन्त संक्षेप में अपने बारे में बताया। शायद यही एक तरीका उसे सन्नाटे से निबटने का लगा। किन्तु युवती पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। वह वैसी ही बैठी रही। चुप। अडोल।

पत्नी ने एक क्षण के लिए उसे देखा। उसे उसकी प्रतिक्रिया का इन्तजार था। लेकिन वहाँ से किसी भी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। पत्नी इसके बावजूद भी मुस्कुराई। बोली, ”आप नहीं कहेंगी कुछ?”

युवती चौंकी। कुछ इस तरह से जैसे वह वहाँ नहीं थी। बहुत दूर थी कहीं। उसके चेहरे पर अनमनापन-सा-उभरा। लगा, पत्नी के सवाल से उसे असुविधा हुई है। यद्यपि उसने भरसक उस असुविधा को छिपाने की कोशिश की। पर वह सफल नहीं हो पाई। प्रश्न को किसी तरह अपने से दूर ठेलती-सी बोली, ”मेरा नाम हेमा जोशी है। मैं यहीं कॉलेज में पढ़ाती हूँ…..” वह रुकी। एक लम्बा घूँट लेकर उसने प्याले में बची चाय खत्म की। वह उठ खड़ी हुई। बोली, ”मैं चलूंगी अब…..”

”इतनी जल्दी?” पत्नी को आश्चर्य हुआ।” अरे आप यहाँ बैठी हो या वहाँ, बात तो एक ही है। आप आराम से यहाँ से भी काम का निरीक्षण कर सकती हैं। देखिए, सामने का सब-कुछ दिख रहा है, एकदम साफ।”

”वोऽ तो ठीक है…..” युवती के चेहरे पर अचानक परेशानी का कुहासा आकर फैला। मैं समझ गया। आदमी, जो बहुत एकान्तजीवी होता है, उसे दूसरों के बीच उठना-बैठना भी बोझ से कम नहीं लगता। युवती शायद इसी मन:स्थिति में थी। लेकिन पत्नी ने उसे जाने नहीं दिया। वापस अपनी जगह पर बैठा लिया। बोली, ”अच्छा, चली जाइएगा। पर मजदूरों को तो लौटकर आने दीजिए।” विवश, लाचार-सी आँखों से उसने अपने प्लॉट की ओर देखा। मजदूर सच में ही अभी लौटकर नहीं आए थे। वह बैठ गई। परेशानी का कुहासा यथावत छाया रहा। बल्कि घना होता चला गया।
(Apne Log Story)

”यहाँ ज्यादातर आप ही दिखाई देती हैं।” पत्नी ने बातचीत का सिरा थामा। वह सन्नाटे को फिर से पसरने नहीं देना चाहती थी। कुछ युवती के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की उसकी उत्सुक बेकली भी थी। मैं समझ रहा था।

”जी हाँ।” युवती का स्वर बहुत मद्धम था। ”कॉलेज में विद्यार्थियों की परीक्षा पूर्व की छुट्टियाँ हो गई हैं। बस, खाली हूँ, सो मैं ही चली आती हूँ।” स्वर मानो कहीं दूर से आ रहा था।

”और वोऽ जो दो वृद्ध-जन शाम को आते हैं, वे कौन हैं?” पत्नी ने जानना चाहा। फिर स्वयं ही समाधान देती बोली, ”शायद आपके सास-श्वसुर होंगे!”

युवती ने सुना। युवती अजीब ढंग से हड़बड़ाई। भवें सिकोड़ती हुई बोली, ”नहीं।….. वे मेरे माता-पिता हैं।”

”अरेऽ….. अच्छा, अच्छा।” पत्नी की आँखें आश्चर्य से फैलीं। ”और वह प्यारी-सी बच्ची? वो क्या आपकी बेटी….” वाक्य को पत्नी ने बीच में ही छोड़ दिया। जान-बूझकर, कुछ इस तरह कि उसका अर्थ दोनों ओर खुला रहे- इस तरफ भी, उस तरफ भी।

युवती इस बार बुरी तरह असहज हुई। चेहरा तनावग्रस्त हुआ। अपने से जैसे जूझती हुई बोली, ”वह एक रिश्तेदार की बच्ची है। हमारे साथ रहकर पढ़ती है।” वह उठ खड़ी हुई। तुरन्त बोली, ”चाय के लिए धन्यवाद। आज मैं चलूंगी…..” उसने जवाब का भी इन्तजार नहीं किया।

दिन शनै:-शनै: आगे बढ़ते रहे।

शहर कोई इतना बड़ा नहीं है कि किसी के बारे में जानना कठिन हो। वैसे भी इस कस्बे की खासियत है कि लोग यहाँ बिना पूछे दूसरों के बारे में बता जाते हैं। ऑफिस में एक दिन जब मेरे पड़ोस में बन रहे मकान का जिक्र आया तो उस युवती के बारे में बहुत कुछ पता चला। गिरीश ने बताया कि वह पिछले सत्रह-अठारह सालों से कॉलेज में पढ़ा रही है। पिता किसी प्राइवेट कम्पनी में क्लर्क थे। कोई बीस साल से सेवानिवृत्त होकर घर बैठे हैं। एक बड़ा भाई है, जो बम्बई में है और वहीं किसी महाराष्ट्रीयन लड़की से विवाह करके बस गया है। दुबारा वह फिर कभी लौटकर नहीं आया। बाद की लगातार तीन लड़कियाँ हैं, जिनमें सबसे बड़ी  वही है। अपनी दोनों छोटी बहनों को इसी ने पढ़ाया-लिखाया, उनकी ब्याह-शादी की। और अब अपने माता-पिता के लिए एक घर बना रही है…..

मैंने सुना। पर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की।
(Apne Log Story)

युवती रोज उसी तरह आती थी। नियमित। वही तपती हुई दोपहर होती, वही सिर पर तना हुआ छाता। अकेले, चुप। शाम को बच्ची का हाथ थामे वृद्ध दम्पति भी दीखते। लंगड़ाते, खाँसते, लाठी टेकते। थोड़ी देर वही खड़े रहते। काम की प्रगति देखकर चेहरे पर सन्तोष की आभा उभरती। फिर उसी आभा को लिए कुछ देर में लौट जाते। युवती वहीं रह जाती। कूलकैग से पानी निकालती। गला तर करती।

उसे दुबारा बुलाने की फिर हमारी हिम्मत नहीं हुई थी। वह भी नहीं आई। आना तो दूर की बात थी, उसने इस ओर पलटकर भी नहीं देखा। सदा की तरह उसकी पीठ ही इधर को होती। मुझे आश्चर्य होता, अपनी इस ठहरी, एकरस दिनचर्या से क्या उसे ऊब नहीं होती है?

वह रविवार का दिन था। जून का तीसरा सप्ताह। बारिश का अभी तक कोई संकेत नजर नहीं आता था। इस साढ़े पाँच हजार फीट ऊँचाई वाले पहाड़ी कस्बे में भी दिन तपने लगे थे। दोपहर बाद हम आँगन में बैठे हुए थे, मैं और पत्नी दोनों। बच्चे देर तक धिरकते रहने के बाद इस समय सोए हुए थे। आँगन में चार कुर्सियाँ पड़ी थीं। बीच में एक गोल मेज, जिस पर खुबानियों की भरी एक प्लेट रखी हुई थी। बैठे-बैठे हम खूबानियाँ खा रहे थे और इधर-उधर की बतियाने में लगे थे। घर-गृहस्थी की पचासों बातें होती हैं। पत्नी को कुछ दिनों के लिए मायके जाना था। बच्चों के चाचा के पास मसूरी जाने की जिद थी। दिल्ली से मेरा एक मित्र सप्ताहभर के लिए सपरिवार आना चाहता था और भी दूसरी-तीसरी बातें। हम इन्हीं बातों में खोए हुए थे कि कैसे सामंजस्य हो? कैसे तालमेल बिठाया जाए? तभी…..

तभी मैंने देखा, एकाएक और अकस्मात्। मुझे यकीन नहीं हुआ। पत्नी को बिलकुल भी नहीं। वह हमारी ओर ही आ रही थी, वह युवती। धीरे-धीरे, गहरे संकोच में डूबी हुई शिथिल। वह आँगन में पहुँची तो हमने पूरी गर्मजोशी दिखलाई। कहा, ”आइए, आइए। आपका स्वागत है।” स्वर भरसक ऐसा था कि सामने वाले का सारा संकोच पिघल जाए।

”दरअसल…..” उसने धूप से झुलसे चेहरे पर फैले पसीने को पोछा। ”मैं आज घर से अपना पानी लाना भूल गई।” उसने मुस्कुराना चाहा। हालांकि वह बहुत बेजान मुस्कुराहट थी।

”अच्छा! मुझे आश्चर्य हुआ।” ”यानी सुबह से अब तक आप प्यासी खड़ी हैं, रियलीऽ…?” मेरे विस्मय का ठिकाना नहीं था। मैंने अपने जीवन में इतना संकोच तो शायद ही कभी किसी में देखा हो।

”नहीं, ऐसी बात नहीं है।” वह किंचित झेंपी। ”प्यास ही दरअसल इस समय लग रही है।” कोई भी समझ सकता था, वह साफ झूठ बोल रही है।

”खैर कोई बात नहीं। आप बैठिए तो सही।” मैंने उसकी ओर कुर्सी बढ़ाई। किन्तु वह वैसी ही खड़ी रही। बोली, ”नहीं, बस एक गिलास पानी….”
(Apne Log Story)

पत्नी पानी लाने के लिए दुमंजिले की सीढ़ियाँ चढ़ चुकी थी।

”आप बैठिए न प्लीज।” मैंने दुबारा कहा। ”पानी लेकर गीता आती ही होगी।”

वह इस बार सीधे प्रतिवाद नहीं कर सकी। हालांकि क्षण के एक छोटे से हिस्से के लिए दोहरी मन:स्थिति में जरूर रही। बैठूँ न बैठूँ का असमंजस भाव। अन्तत: बैठ गई।

पत्नी पानी ले आई। उसने पूरे दो गिलास पानी लिया। चेहरे पर तृप्ति की चमक उभरी। रुमाल से होंठों को पोंछते हुए कहा, ”आप लोगों को कष्ट दिया चलती हूँ….”

”इसमें कष्ट की क्या बात है!” पत्नी के चेहरे पर कोमलता थी। अचानक ही उसका हाथ थामती बोली, ”आप तो आते ही जाने की बात करने लगी हैं। अरे वहाँ मिस्त्री-मजदूर काम कर ही रहे हैं। आपको भी लगना है क्या उनके साथ? ”पत्नी अपने परिहास पर खुद ही हँसी। अधूरी बात पूरी करते बोली, ”बैठकर आराम से सुस्ता लीजिए थोड़ी देर।”

”नहीं, फिर कभी…..” उसने उठना चाहा। वह उठी। लेकिन पत्नी ने भी उसका हाथ नहीं छोड़ा। बोली, ”आपका कल तो कभी आने से रहा। वैसे भी, बड़ी मुश्किल से तो आज आपने अपने मकान की हद पार की है। अब बिना कुछ ठण्डा पिए तो नहीं जाने दूंगी….”

”अबऽ….” उसने बेहद लम्बी श्वास खींची, जैसे किसी दुर्योग में आकर फँस गई हो। लाचार-सी आँखों से पत्नी को देखा। दुबारा बैठने के लिए विवश हो गई।

पत्नी वापस अन्दर चली गई।

आँगन में अब हम दो ही थे, वह और मैं। जून के तीसरे सप्ताह की तपती दोपहर का विकराल सन्नाटा हमारे बीच पसर गया। सन्नाटा सहन नहीं हो रहा था।

”येऽ खुबानी लीजिए।” मैंने खुबानी की प्लेट आगे बढ़ाई। उसने अत्यन्त संकोच से अंगूठे और तर्जनी की सहायता से एक खूबानी उठाई। उसकी उँगलियों बहुत पतली थीं- कलाकारों की-सी उँगलियाँ। मुझे लगा या तो वह पेटिंग करती होगी या सितार बजाती होगी। मैंने पूछना चाहा। पर मैं जज्ब कर गया।

उसने बहुत सलीके से खुबानी के दो फाँक किए और उन्हें देखने लगी।

फिर वही बोझिल खामोशी। मैं बात करना चाहता था- लेकिन कोई भी ऐसी बात नहीं जिससे उसे असुविधा हो। मैं उसे किसी भी असुविधाजनक स्थिति में नहीं डालना चाहता था।

”आप कितने सालों से पढ़ा रही हैं?” कुछ नहीं सूझा तो मैंने यही पूछ लिया। पत्नी के आँगन में वापस आने तक इस असह्य खामोशी को ठेले रखना जरूरी था।
(Apne Log Story)

”अठारह साल हो गए हैं….” उसने अपने पर्स पर उँगलियाँ चलाईं, ”पूरे अठारह साल….”उसने दुबारा कहा, फिर एक लम्बी श्वास खींची! आँखें पेड़ों के झुरमुट को चीरती कहीं बहुद दूर निकल गईं। मानो वे आँखें बीते अठारह सालों को ढूँढना चाहती हों।

मैंने हिसाब लगाया। युवती की उम्र चालीस के आसपास होनी चाहिए। हालांकि लगती नहीं थी बिल्कुल भी।

मैं बात का कोई दूसरा सिरा ढूँढने लगा। पर इसकी जरूरत नहीं पड़ी। मैंने अचानक उसके बूढ़े पिता को आते देखा। हालांकि वे दिन में कदाचित ही आते थे। आते भी हों तो मुझे पता नहीं। मैं छुट्टी वाले दिन के अलावा घर पर होता ही कब था। युवती को अपनी जगह पर न पाकर शायद उन्हें हैरानी हुई थी। उन्होंने मजदूरों से पूछा। एक मजदूर की उँगली सीधे इसी दिशा की ओर उठी। युवती की उस ओर पीठ थी। पर मैं एकदम सामने था और देख सकता था।

वे मुडे़। लपकते हुए सीधे इधर ही आने लगे। उनकी चाल में हड़बड़ाहट भरी तेजी थी। मैंने उसे बताया, ”आपके पिता चले आ रहे हैं शायद….”

मुझे नहीं मालूम उसने क्या सुना? वह अचकचाती-सी उठ खड़ी हुई, कुछ इस तरह जैसे शरीर पर कोई कीड़ा काटता हुआ रेंगा हो। ”चलती हूँ….” उसने कहा। वह हड़बड़ाहट में लगी। मेरी समझ में माजरा नहीं आया। आखिर ऐसा क्या हो गया है कि…., पर तब तक उसके बूढ़े पिता आँगन तक पहुँच गए थे। मैंने कुर्सी से उठते हुए उनका अभिवादन किया। कहा, ”बड़ी प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर। आइए, बैठिए।”

उन्होंने मेरे अभिवादन का कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ काटती नजरों से मुझे घूरा भर। मुझे आश्चर्य हुआ। उन आँखों में मेरे लिए घृणाभरी हिकारत थी। अगले ही पल वे अपनी बेटी की ओर मुड़े। सख्ती से पूछा, ”यहाँ क्या कर रही हो?”

उसने पिता के सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। शायद जरूरी न समझा हो। वह मुड़ी। वापस जाने लगी। वृद्ध भी उसके पीछे-पीछे चल दिए। मैं हतप्रभ-सा सिर्फ देखता रहा।….

उस दिन के बाद वह फिर कभी इस ओर नहीं आई। रास्ते में एकाधिक बार चलते-फिरते मुलाकात जरूर हुई थी। पर तब भी उसने केवल सिर झुकाए हुए हाथ जोड़ दिए थे। न कभी कुछ कहा, न पूछा। मकान बनकर तैयार हो गया था। एक दिन गृह-प्रवेश की औपचारिकता भी सम्पन्न हुई। पत्नी ने पहले से ही ठान लिया था, वह उनके गृह-प्रवेश में नहीं जाएगी। पर इसकी नौबत नहीं आई। उन्होंने हमें आमंत्रित ही नहीं किया। वैसे भी उस गृह-प्रवेश में पाँच-सात लोगों से ज्यादा थे भी नहीं। पत्नी को यकीन नहीं हुआ। उसने मुँह बिचकाकर कन्धे उचकाए। ”जाएँ भाड़ में….” वह बोली थी। बस, बात खत्म हो गई।
(Apne Log Story)

समय सरकता रहा।

युवती बहुत कम दिखाई देती। कॉलेज आने-जाने के अलावा उसका बाहर निकलना शायद नहीं होता था। आँगन में भी वह मुश्किल से ही दिखाई पड़ती। उसके वृद्ध माता-पिता ही आँगन में ज्यादातर बिराजे रहते-चहकते और गदगद। जब देखो दोनों आँगन में कुर्सी डाले बैठे, गप्पें मारते हुए मिलते। बीच-बीच में उनकी बूढ़ी मुक्त हँसी उस आँगन से थिरकती हुई इस आँगन तक आती। वह बच्चों-सी किलकती हँसी होती। मस्त, निद्र्वन्द्व। पत्नी उन्हें देखकर नाक-भौं सिकोड़ती, देखो तो बुढ़ापे में कैसे चोंच से चोंच लड़ाते रहते हैं। छि:… बेशर्म! पर पत्नी के बिदकने का उन्हें क्या फर्क पड़ना था। वे मस्त थे अपने आप में, खोए हुए। दोनों ही मकान की देखभाल में ऐसे लगे रहते जैसे किसी छोटे, नन्हें शिशु की देखभाल में लगे हों। बगीचे में उन्होंने फूलों के पेड़ लगा लिए थे। दोनों मिलकर मनोयोग से बगीचे की गुड़ाई करते, सींचते। जिन्दगी अब जैसे उनके लिए जवान हुई थी।

वृद्ध दम्पति के अलावा आँगन में कभी-कभी वह बच्ची दिखाई देती। कूदती-फाँदती। किन्तु युवती की उपस्थिति वहाँ कदाचित ही होती थी। बहुत कम। नहीं के बराबर। कभी दिखाई भी देती तो शाम के नीम अँधेरे में-अकेले, सामने की डूबती पहाड़ियों को ताकती हुई, या उनमें कुछ खोजती-ढूँढती-सी। यदा-कदा बच्ची भी उसके साथ होती…. आँगन में उसी के साथ चहलकदमी करती हुई। पर कुल मिलाकर यह सब बहुत कम होता था। उसके घर आने-जाने वालों की संख्या भी नगण्य थी। वे जैसे अपने ही टापू में रहना पसन्द करते थे। पड़ोसियों से भी धेलेभर का सम्पर्क नहीं।

उस दिन कोई छुट्टी थी। यह कुछ अरसे बाद की घटना है। मकान बनने के कोई सालभर बाद की बात होगी। वे मार्च के मनोहारी दिन थे, जब पेड़ों पर नई-नई कोपलें, रंग-बिरंगे फूल निकल आते हैं। धूप अभी भी प्यारी लग रही थी। मैं आँगन में धूप का मजा लेता अखबार पढ़ रहा था। तभी कोई हमारे आँगन में आया। आगंतुक अपने चेहरे से परेशान लग रहा था। मेरे निकट पहुँचकर उसने हाथ जोड़े। शिष्टता के साथ पूछा, ”माफ कीजिएगा भाई साहब, मैं आपको व्यवधान पहुँचा रहा हूँ। क्या आप बता सकते हैं कि डॉ. हेमा जोशी का मकान कौन-सा है? वही जो कॉलेज में पढ़ाती हैं….”

मैं कुर्सी से उठा। मैंने इशारे से बताया कि यही सामने वाला है।

”थैंक गॉड।” उसने एक लंबी श्वास खींची। थके, परेशान चेहरे को राहत मिली। बोला, ”घण्टेभर से भटक रहा हूँ। थक गया हूँ बुरी तरह।” उसने कमर के नीचे खिसक आई अपनी पैण्ट को ऊपर की ओर खींचा।

”वोऽ तो आपको देखकर लग ही रहा है।” मैं मुस्कुराया। ”पानी पीएंगे क्या?”

”नहीं धन्यवाद।” उसने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया। पूछा, ”क्या आप मुझे उस आँगन तक छोड़ देंगे?”

सवाल अजब-सा था। चकराने वाला। घण्टेभर से जाने कहाँ-कहाँ खोजता-भटकता फिर रहा है। अब इतने निकट आकर कह रहा है, क्या मुझे उस आँगन तक छोड़ देंगे? मुझे हँसी आने को हुई। क्या आदमी कुछ सिरफिरा है? पर हँसना शिष्टाचार विरुद्ध था। मैं सोच में पड़ गया। क्या कहूँ, क्या करूँ?

”प्लीज, यदि आप बुरा न मानें।” उस अजनबी ने दुबारा आग्रह किया। पता नहीं उसके इस दुबारा आग्रह में ऐसा क्या था कि मैं मना नहीं कर सका। पर सच कहूँ तो यह मेरे भीतर की भी इच्छा थी। उसके घर-आँगन तक जाने की उत्सुकता, जानने का कौतूहल। मैं उसके साथ चल दिया।

आँगन में चटाई डाले वृद्ध लेटे हुए थे। पास ही वृद्धा बैठी थी। वृद्ध आँखों में चश्मा चढ़ाए लेटे-लेटे वृद्धा को अखबार पढ़कर सुना रहे थे। वृद्धा आँखें मूँदे सुन रही थी। तभी हमारे आँगन में पहुँचने की आहट उन दोनों ने सुनी। वृद्धा की मुँदी आँखें खुलीं। वृद्ध ने आँखों से चश्मा हटाया। तपाक से उठ खड़े हुए। वह आश्चर्यजनक फुरती थी।

दोनों ने हमारी ओर देखा। फिर एक-दूसरे की आँखों में झाँकने लगे…..

”बोलिए?” वृद्ध की आँखें कंचे-सी गोल हुईं। ”किससे मिलना है?” वह बेहद अशिष्ट लहजा था। मैं उनकी अशिष्टता को एक बार झेला हुआ था। मुझे कोई मुश्किल नहीं हुई। पर उस आगंतुक को अवश्य ही खराब लगा होगा। ऐसी अशिष्टता किसी को भी खराब लग सकती है। पता नहीं वह कहाँ से, कितनी दूर से मिलने आया है, और यहाँ….

”प्रणाम बाबूजी!” आगंतुक ने बहुत शिष्टता से पहले वृद्ध को प्रणाम किया। फिर वृद्धा के आगे झुका। हाथ जोड़े। हँसते हुए कहा, ”म़ुझे हेमाजी से मिलना है।”
(Apne Log Story)

वृद्ध दम्पति ने दुबारा एक-दूसरे की ओर देखा। कुछ तौला, सूँघा। ”पर हमने आपको पहचाना नहीं।” वृद्ध ने अगले ही पल घनघोर उपेक्षा ओढ़ ली। वृद्धा ने भी अपनी गर्दन हिलाकर सहमति प्रदान की।

आगंतुक ने अपने दोनों कन्धे उठाए। वह हँसा। वह अपने बारे में बताने ही जा रहा था कि उसकी जरूरत नहीं पड़ी। उसके कुछ कहने से पहले ही युवती का स्वर सुनाई दिया, ”कौन?… प्रकाश?”

आगंतुक ने पलटकर देखा। युवती बाहर निकलकर आ रही थी। एक बहुत मीठी, खुशगवार हँसी बिखेरते हुए वह बोला, ”हाँ, भई, मैं हूँ। मैं, प्रकाश द ग्रेट…”

वह अकेले ही हँसा। हँसता रहा।

युवती ठीक उसके सामने आकर खड़ी हो गई। पर बोली कुछ नहीं।

”और सुनाओ?…येऽ मकान कहाँ बना डाला तुमने? मैं तो ढूँढते-ढूँढते पागल हो गया, भई। वह तो भला हो इन भाई साहब का जो मुझे यहाँ तक छोड़ने आ गए।”

वह दुबारा हँसा। लगा,  वह आदमी बना ही हँसने के लिए है।

”आओ, बैठो।” युवती बोली। मुझे लगा, मेरी भूमिका खत्म हो गई है। मैंने वापस लौटना ठीक समझा। तभी युवती ठिठकी। बोली, ”येऽ क्या? आप कहाँ जा रहे हैं? एक कप चाय तो पीजिए।”

मैं तय नहीं कर पाया। खड़ा रहा असमंजस में। पर जब युवती ने अपना आग्रह दुहराया तो मैं मना भी नहीं कर सका। उनके साथ ही बैठक में प्रवेश कर गया।

वृद्ध और वृद्धा दोनों ही हतप्रभ थे, हक्के-बक्के। जहाँ के तहाँ बुत बने-से खड़े। संयोग से मैं उन्हें देख सकता था। मैं बैठक के जिस कोने में बैठा था, वहाँ से आँगन का वह हिस्सा साफ दिखाई दे रहा था, जहाँ वे दोनों खड़े थे। वृद्धा एकाएक ही बैठ गई। पर वृद्ध चहलकदमी करने लगे। वह बेचैन चहलकदमी थी। अचानक ही वे रुके। चटाई पर पड़ा अखबार उठाया और सीधे अन्दर चले आए, अन्दर बैठक के कमरे में। हमारे बीच जो सोफा खाली पड़ा था, आकर उसमें धँस गए। आँखों के सामने अखबार फैला लिया।

”कैसा चल रहा है?” आगंतुक ने युवती से पूछा। ”सब ठीक।”युवती का संक्षिप्त उत्तर था। ”तुम अपनी सुनाओ….।” क्षण के एक छोटे हिस्से के लिए उसने आगंतुक के चेहरे की ओर देखा।

”मजे में हूँ।” आगंतुक ने खुशगवार अन्दाज में उत्तर दिया। ”बस एक ही कमी है। तुम्हारी तरह पहाड़ की आनन्ददायक जिन्दगी अपने कपाल में नहीं है।” वह चहका। चहकना तुरन्त उसकी हँसी में प्रतिबम्बित हुआ। ”एक बात है…” उसने अपनी हँसी रोकी, ”मकान तुमने बहुत अच्छा बनाया है, खूबसूरत।” प्रतिक्रिया के लिए उसने युवती की ओर देखा। पर युवती ने कोई उत्तर नहीं दिया। चुप रही। वैसे भी ज्यादा वही बोल रहा था, लगातार। शायद उसे चुप रहने की आदत ही नहीं थी।

वृद्ध इतनी ही देर में कितनी बार हिले। अखबार के पन्नों को इधर-उधर किया। अन्तत: नहीं रह सके। बीच बात में हस्तक्षेप करते हुए बोले, ”अब इन्हें कुछ चाय वगैरह भी तो पिलाओ…।” अखबार उन्होंने सामने से हटा लिया। स्वर में भरपूर कोमलता थी। पर साफ लग रहा था कि वह कोमलता बनावटी है। युवती का वहाँ बैठा रहना शायद उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था।
(Apne Log Story)

युवती को उनका यह हस्तक्षेप कदाचित अच्छा नहीं लगा। वह तनिक असहज हुई। फिर तत्काल ही अपनी भावनाओं को दबाती हुई फुरती से उठी। बोली, ”आप लोग बैठिए। बस, मैं चाय लेकर आई…..।”

युवती के जाते ही कमरे में खासी बोझिलता उतर आई। एक प्रकार का असह्य खिचाव। वृद्ध ने फिर से अखबार के पन्ने पलटने शुरू कर दिये थे। पर साफ महसूस हुआ था कि वे पढ़ नहीं रहे हैं, महज उस आगंतुक को घूर रहे हैं। उनकी बेचैनी बता रही थी कि वे आगंतुक से बतियाना चाहते हैं। पर शायद कोई शुरुआत नहीं मिल पा रही थी।

”और बाबूजी, आपका स्वास्थ्य कैसा है?” आगंतुक को भी चुप रहने की आदत नहीं लगती थी। उसने सामने पसरी त्रासदायी बोझिलता को झनझनाया। सच में बहुत असह्य व काटने वाली थी वह खामोश बोझिलता।

”ठीक हैं हम।” वह तो मानो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। उन्होंने फुरती से अखबार लपेटा। कुर्सी पर पालथी मारकर बैठे। टटोलती-सी आँखों से हमें घूरा। हम दोनों को। बाद में पूरी तरह आँखों को सिर्फ आगंतुक पर केन्द्रित कर दिया। शुरुआत का सिरा उन्हें मिल गया था। पूछा, ”मैंने आपको पहचाना नहीं।” उनकी भृकुटी के पास झुर्रियों का एक बड़ा-सा जाल उभरा। आँखों ने अब नेजे की तरह चुभना शुरू कर दिया।

”असल में, मैं और हेमा साथ ही पढ़े हैं। एम.ए. में। तब हम दोनों के बीच जबरदस्त प्रतिस्पद्र्धा हुआ करती थी….” वह रुका। आँखें थोड़ी देर के लिए अतीत में जाकर डूबीं। फिर तुरन्त ही वह वर्तमान में लौट आया। कहा, ”पर अन्त में हाथ मारा हेमा ने ही।”

वृद्ध ने गर्दन हिलाई, कुछ इस तरह जैसे फिजूल की बात हो वह। पूछा, ”इस समय कोई काम था हेमा से?”

आगंतुक हँसा। ”मिलना भी तो एक काम ही है, बाबूजी।” वह दार्शनिक हो आया। ”सालों पुराने लोगों से मिलो तो लगता है वक्त गुजरा नहीं, वहीं खड़ा है। कम-से-कम कुछ देर तो ऐसा ही लगता है। नहीं क्या?”

वृद्ध ने इस बार भी सिर्फ गर्दन हिलाई। पर उस गर्दन हिलाने का कोई मतलब नहीं था। वह यूँ ही लगता था, बिना बात। जैसे उन्होंने आगंतुक की बातें सुनी ही नहीं। वे अलग तरह के गणित में उलझे हुए लगते थे। चेहरे पर उलझन थी।

कुर्सी पर बैठे हुए वे बार-बार दाएँ-बाएँ हो रहे थे। इस बार फिर हिले। पूछा, ”अकेले आए हैं क्या?”

”ना, ना।” वह उत्साह से चहका। ”पत्नी और दोनों बच्चों को नैनीताल छोड़ आया हूँ। असल में उन्हें आना ही नैनीताल तक था। मैंने सोचा जब नैनीताल आ ही गया हूँ तो अपने पुराने शहर भी हो आऊँ। बस, लोगों से मिलने-मिलाने चला आया।”

”अच्छा किया, अच्छा किया….” मुझे आश्चर्य हुआ। आगंतुक को भी हुआ होगा। इतनी देर में पहली बार वे सहज दिखाई दिए थे। पहली बार आदमियों की तरह बोलते लगे। अब आराम से उन्होंने कुर्सी के पुश्ते पर पीठ टेक ली। अखबार को भली-भाँति सामने फैला लिया। समाचारों में एकाग्र हुए। इस पूरे वक्त में वे अब अखबार पढ़ते लग रहे थे। खबरों में आँखें गड़ाए अचानक ही वे बड़बड़ाए, ”पता नहीं क्या हो गया है जमाने को भी। अपने ही लोग अपनों का गला काटने में लगे हैं…।”  शायद वहाँ ऐसी कोई खबर थी, अखबार में छपी हुई। खबर उन्होंने हमारे सामने फैला दी।

युवती तभी चाय-नाश्ता लेकर आयी। सबने मिलकर चाय पी। वह बेहद खामोश चाय थी। मैं वहाँ से अब खिसकना चाहता था। दो पुराने सहपाठियों के बीच वैसे भी मेरा बैठना अनावश्यक था। मैंने जल्दी से चाय खत्म की। मैं उठा। मेरे साथ वृद्ध भी उठ खड़े हुए। अखबार को उन्होंने लपेटा, बगल में दाबा और किसी से कुछ कहे बिना सीधे बाहर आँगन में निकल आए। मैं उनके पीछे-पीछे था। आँगन में बेसब्री से चहलकदमी करती वृद्धा शायद उन्हीं का इन्तजार कर रही थी। उन्हें देखते ही लपकते हुए उनकी ओर बढ़ी। अपने आँगन की ओर निकलते हुए मैंने सुना, वृद्ध आश्वस्त भाव से कह रहे थे, ”ना, कोई परेशानी वाली बात नहीं है। वह जो भी है, शादीशुदा है…. दो बच्चों का बाप है ….”

मैंने मुड़कर नहीं देखा। उसकी जरूरत नहीं थी। किन्तु मेरी पीठ ने सब-कुछ अनुभव किया। वृद्धा ने एक मुक्त, खुली हुई साँस खींची थी। फिर वे हल्की हो आईं…. तनावमुक्त, जैसे कि अभी थोड़ी देर पहले वृद्ध हुए थे।

अपने ही लोग से साभार
(Apne Log Story)
उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika
पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें