अश्रांत वामपंथी लेखिका रंगनायकम्मा

मधु जोशी

1939 में जन्मी तेलगू लेखिका रंगनायकम्मा के विषय में मैत्री विरागी कहती हैं, ‘‘रंगनायकम्मा एक तेज-तर्रार लेखिका हैं, जो अपने मन की बात कहने के लिए प्रसिद्ध हैं।’’ वस्तुत: इस छोटे से वाक्य में रंगनायकम्मा के लेखन ही नहीं, वरन उनके जीवन का सार भी निहित है। उन्होंने अपना जीवन कितनी बेबाकी और हिम्मत से जिया है और वह अभी भी इतनी लगन के साथ, बिना डरे अपने सामाजिक दायित्व और अपना लेखन धर्म निभा रही हैं कि विश्वास करना मुश्किल होता है कि उनका जन्म 1939 में तत्कालीन आंध्रप्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के छोटे से बोम्मिदी गाँव में हुआ था।

रंगनायकम्मा ने 1955 में सेकेन्डरी स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट (ररछउ) की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वह अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सकी क्योंकि उनके पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह अपनी पुत्री को आगे पढ़ाने के लिए घर से दूर भेज सकें। इसके अलावा उस समय लड़कियों को पढ़ाई के लिए बाहर भेजने का चलन भी नहीं था। पढ़ाई जारी रखने के लिए रंगनायकम्मा ने कुछ दिनों तक हड़ताल भी कि किन्तु उसका कोई फायदा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा द्वारा आयोजित हिन्दी परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने शब्दकोश तथा अन्य द्विभाषीय पुस्तकों की सहायता से हिन्दी सीखी और परीक्षा के चार स्तर उत्तीर्ण किये।

1958 में रंगनायकम्मा का विवाह हो गया। दो पुत्रों और एक पुत्री के जन्म के उपरान्त उनका अपने पति से सम्बन्ध विच्छेद हो गया। विवाहोपरान्त डड्डा नाला रंगनायकम्मा अपना नाम मुप्पाला रंगनायकम्मा लिखने लगी थीं किन्तु पति से अलग होने के बाद उन्होंने सिर्फ रंगनायकम्मा नाम अपना लिया और अब वह इसी नाम से लेखन कार्य करती हैं। बाद में रंगनायकम्मा खुद से दस वर्ष छोटे साथी के साथ रहने लगीं। दो बार नाम बदलने के बाद रंगनायकम्मा ने बच्चों के नामकरण के सम्बन्ध में दिलचस्प सुझाव दिया। उनके अनुसार बच्चे के नाम के पहले सर्वप्रथम माँ का नाम लिखा जाना चाहिए क्योंकि माँ बच्चे को जन्म देने के अलावा उसका पाल-पोषण भी करती है। इसके बाद बच्चे के पिता का नाम लिखा जाना चाहिए और उसके बाद बच्चे का अपना नाम। यदि ऐसा होता तो रंगनायकम्मा का नाम होता, लक्ष्मीसत्यनारायणेय्या रंगनायकम्मा और उन्हें एल.एस. रंगनायकम्मा के नाम से जाना जाता। उल्लेखनीय है कि यदि रंगनायकम्मा के सुझाव को लागू किया जाय तो बच्चों को जातिसूचक कुलनाम से भी मुक्ति मिल जायेगी। 1986 में प्रकाशित लेख में वह कहती हैं कि यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था को ध्वस्त करने में भी सहायक होगा।

रंगनायकम्मा ने 1955 से लिखना शुरू कर दिया था। आरम्भ में वह अपने पिता द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘पद्मनायक’ में राजा-रानी-दानव-दैत्य आदि से सम्बन्धित काल्पनिक लोकगाथाओं की रचना करती थीं। 1955 में उन्होंने ‘तेलगू स्वतंत्र’ नामक लोकप्रिय पत्रिका के लिए सामाजिक सरोकारों पर आधारित ‘‘पर्वतम्मा’’ नाम की कहानी लिखी। विवाह से पहले उन्होंने दो लघु कथाओं के अलावा एक लम्बी कहानी ‘पल्लेतुरु’ भी लिखी, जिसमें उन्होंने तेलगू समाज में निकट सम्बन्धियों के बीच विवाह का विरोध किया। उनका पहला उपन्यास ‘कृष्णवेणी’ साप्ताहिक पत्रिका ‘आंध्रप्रभा’ में कई महीनों तक लगातार प्रकाशित हुआ। आज तक उनके 15 उपन्यास, 70 कहानियाँ और अनेक लेख प्रकाशित हुए हैं।

1973 में रंगनायकम्मा का परिचय माक्र्सवाद से हुआ और उसके बाद उनका लेखन वामपंथी विचारधारा से प्रभावित हो गया। उनकी सबसे ज्यादा र्चिचत कृति, 1974 में प्रकाशित ‘रामायण विषवृक्षम्’, ‘रामायण’ का माक्र्सवादी दृष्टिकोण से विश्लेषण करती है। मूलत: तीन खण्डों में प्रकाशित यह कृति अब एक खण्ड में उपलब्ध है। इसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हो चुका है। इसके प्रकाशन के साढ़े चार दशकों के बाद भी इसकी लेखिका को लोग आज भी पत्र लिखकर सूचित करते हैं कि ‘रामायण विषवृक्षम्’ को पढ़ने के कारण वह तर्कवादी बन गये हैं।

रंगनायकम्मा की एक और महत्वपूर्ण कृति ‘माक्र्स कैपिटल परिचयम्’ (1978) है। इसमें उन्होंने पाठकों का परिचय कार्ल माक्र्स की ‘दास कैपिटल’ से कराया है। तीन खण्डों में प्रकाशित ‘जानकी विमुक्ति’ में रंगनायकम्मा यह सिद्ध करने का प्रयास करती हैं कि माक्र्सवाद के मार्ग पर आगे बढ़कर ही लैंगिक समानता संभव है। यद्यपि रंगनायकम्मा ने पाठकों के अनुरोध के बावजूद अपनी जीवनी नहीं लिखी है लेकिन उनकी कुछ कृतियों में आत्मकथात्मक झलकियाँ मिलती हैं। इसके अलावा उनके मित्र ने तलाक से पूर्व और तलाक के उपरान्त लिखे उनके पत्रों को संकलित किया है। इस संकलन में हमें  लेखिका के दुरूह जीवन के साथ-साथ उनके दृढ़ संकल्प और मन:स्थिति की  झलक मिलती है।
(Angry leftist writer Ranganayakamma)

अपने बेबाक लेखन, वामपंथी रुझान और अति मताग्रही रवैये के कारण रंगनायकम्मा को बहुधा समाज के रूढ़िवादी और परम्परावादी तबके की आलोचना झेलनी पड़ी है। इसी कारण से उन्हें मुकदमों का सामना करना पड़ा है और कचहरी में भी उन्हें कुछ न्यायाधीशों के कोप का सामना करना पड़ा है। 1981-82 में प्रकाशित यंदमुरी विरेन्द्र प्रकाश के उपन्यास ‘तुलसी-दलम’ में काले जादू-टोने टोटके आदि के महिमामण्डन की आलोचना करते हुए जब रंगनायकम्मा ने उक्त कृति पर तीखी टिप्पणी की तो उन पर मुकदमा दर्ज करा दिया गया। न्यायालय में उनका नाम सुनते ही न्यायाधीश ने तत्काल पूछा, ‘‘क्या यह वही रंगनायकम्मा हैं जिन्होंने ‘रामायण’ की आलोचना की थी? क्या यही हमारी संस्कृति से बर्ताव करने का तरीका है?’’ कानूनी लड़ाइयों के दौरान रंगनायकम्मा को बहुधा इसी तरह की पूर्वाग्रह ग्रस्त टिप्पणियों से पग-पग पर जूझना पड़ा है किन्तु उन्होंने अपने लेखन और अपनी विचारधारा से कभी किसी तरह का समझौता नहीं किया।

1973 में रंगनायकम्मा का परिचय माक्र्सवादी विचारधारा से हुआ। वह कुछ समय के लिए माक्र्सवादी-लेनिनवादी संगठन ‘‘टी.एन. ग्रुप’’ से भी सम्बद्ध रहीं और 1977 से 1979 तक उन्होंने इस गुट की पत्रिका ‘जनसाहिति’ का सम्पादन किया। बाद में वैचारिक मतभेद के कारण उन्होंने इस गुट से सम्बन्ध तोड़ लिये। यद्यपि इसके बाद वह किसी कम्युनिस्ट गुट से सम्बद्ध नहीं रहीं, फिर भी उनके लेखन में वामपंथी विचारधारा का प्रभाव साफ देखा जा सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि जब वह ‘दास कैपिटल’ पर पुस्तक लिख रही थीं तो उन्हें इस आधार पर रोकने के प्रयास किये गये थे कि यह काम माक्र्सवादी पार्टी का कोई सदस्य ही कर सकता है। इस बार भी वह अपने इरादे पर अडिग रहीं और अन्तत: उन्होंने अत्यन्त लोकप्रिय पुस्तक ‘माक्र्स कैपिटल परिचयम्’ की रचना की।

2007 के बाद रंगनायकम्मा ने मॉस्को में प्रकाशित छह माक्र्सवादी पुस्तकों का तेलगू में अनुवाद किया जिनमें इकनॉमिक्स बिफॉर माक्र्स कन्डिशन ऑफ मिडल क्लास इन इंग्लैण्ड और माक्र्स एण्ड लेनिन ऑन ट्रेड यूनियन शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने तीन अंग्रेजी उपन्यासों हावर्ड फॉस्ट के स्पार्टकस और फ्रीडम रोड तथा हैरियट बीबर स्टो के अंकल टॉम्स कैबिन का भी तेलगू में अनुवाद किया है। उन्होंने फ्रांसीसी माक्र्सवादी लेखक चाल्र्स बैथलहीम की दो पुस्तकों चायना सिन्स माओ और कल्चरल रैवोल्यूशन एण्ड इन्डस्ट्रियल ऑरगनाइजेशन का भी तेलगू में अनुवाद किया है। चार्ल्स बैथलहीन ने उनके इस प्रयास की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 1965 में आन्ध्र प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा उनके उपन्यास ‘बलीपीठम’ को सर्वश्रेष्ठ उपन्यास के रूप में सम्मानित किया गया। इसके बाद वामपंथी विचारधारा के सम्पर्क में आने के उपरान्त उन्हें पुरस्कारों-अलंकारों और सम्मान समारोहों के पीछे की राजनीति समझ में आने लगी। इसके परिणाम स्वरूप अब वह कोई पुरस्कार स्वीकार नहीं करती हैं।

दकियानूसी और रूढ़िवादी मान्यताओं की कट्टर विरोधी होने के बावजूद रंगनायकम्मा प्रगतिशील विचारों के संदर्भ में भी लकीर की फकीर नहीं है। वह काफी सोच-विचार के बाद ही किसी भी मुद्दे पर अपनी राय कायम करती है। उदाहरणत: जब वामपंथी ‘टी.एन. गुट’ के विचारों से वह सहमत नहीं हुई तो उन्होंने उस गुट की सदस्यता त्याग दी। इसी तरह से उन्होंने ‘‘हैदराबाद फैमिनिस्ट सर्कल’’ की ‘बुजुर्वा नारीवाद’ कहकर आलोचना की क्योंकि उन्हें लगता था कि वह अभी भी चन्द दकियानूसी परम्पराओं का पालन कर रहा है। चूंकि उन्हें लगता था कि इस संस्था की सदस्य उतनी प्रगतिशील नहीं है, जितनी रंगनायकम्मा को उनसे अपेक्षा थी। अत: लेखिका ने उन पर किताब भी लिखी। इस पुस्तक का शीर्षक फ्राम इनइक्वॉलिटी द इनइक्वॉलिटी यह दर्शाता है कि यह संस्था महिलाओं को महज असमानता से दूसरी असमानता की तरफ ले जा रही है।

1999 में रंगनायकम्मा ने बी.आर. अंबेडकर के विचारों का अध्ययन, विशेषकर जातिगत भेदभाव के संदर्भ में आरम्भ किया। इन विचारों से प्रभावित होकर रंगनायकम्मा ने  दिसम्बर  1999 से नवम्बर 2000 तक आंध्रज्योति में इस विषय पर लेख लिखे जो नवम्बर 2000 में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए। इस पुस्तक के तेरह  संस्करण छप चुके हैं और इसे अंग्रेजी, हिन्दी, तमिल और मराठी में भी अनूदित किया गया है। जाति व्यवस्था पर रंगनायकम्मा के अन्य लेख भी पुस्तक के रूप में प्रकाशित किये गये हैं। उन्होंने महाभारत तथा वेदों पर भी लेख लिखे।

रंगनायकम्मा शुरू से ही लेखन के लिए सहज और सरल भाषा की पक्षधर रही है। उन्होंने वामपंथी तथा अन्य साहित्य में क्लिष्ट और दुरूह भाषा के इस्तेमाल की खुलकर से आलोचना की है। इसी आसान भाषा के कारण रंगनायकम्मा सामान्य पाठकों तक अपने विचार पहुँचाने में सफल हुई हैं। इस तथ्य को भी रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि वामपंथी विचारधारा हो या प्रगतिशील नारीवाद, जातिगत समानता हो या सरल भाषा का प्रयोग, विगत साढ़े छह दशकों से रंगनायकम्मा की दमदार लेखनी अनेक अवरोधों के बावजूद निर्भीकता से अनवरत, बिना थके- बिना झुके,  अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन कर रही है। आज भी, अस्सी बसन्त देख चुकने के बावजूद, उनका अनथक रचना-धर्म अनवरत जारी है। इसीलिए  निर्मला चेल्लूमहन्ती कहती हैं, ‘‘उनका दृढ़ विश्वास है कि मार्क्सवाद और समाजवादी सरकारें ही महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक समानता दे सकती हैं। वह पारिवारिक रिश्तों, बच्चों की परवरिश, समाज में व्याप्त दोहरे मापदण्डों पर पैनी टिप्पणियाँ करती हैं।’’
(Angry leftist writer Ranganayakamma)
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