शराब विरोधी आन्दोलन और जनता के बीच फैलाये जा रहे भ्रम

रेनू

उत्तराखण्ड में शराब विरोधी आंदोलनों का लम्बा इतिहास रहा है। कई बार शराब विरोधी प्रचार और आन्दोलन में छिटपुट रूप से भागीदार रही हूँ परन्तु इस बार दमुवाढूंगा (हल्द्वानी) में शराब की दुकान हटाये जाने के लिए किये गए आन्दोलन में कई अनछुए पहलुओं पर करीब से नजर डालने का अवसर मिला। विशेषकर जनता में फैलाये जा रहे भ्रमों के विषय में।

उत्तराखण्ड में शराब के खिलाफ महिलाओं का आक्रोश कोई नया नहीं हैं। महिलाएँ वर्षों से शराब के खिलाफ आन्दोलनरत रही हैं। प्रशासन ने भी पिछले कुछ वर्षों से आंदोलनकारियो के दमन का एक नया तरीका इजाद कर लिया है कि उन पर फर्जी केस लगाकर उन्हें न्यायालय के जटिल चक्रों में उलझा दिया जाये ताकि सभी आन्दोलनकारियों को डराया जा सके।

पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से शराब की दुकानों को राष्ट्रीय राजमार्ग से 500 मीटर दूर हटाया गया (हालाँकि वह आदेश अब बदल गया है) तो सरकार- प्रशासन द्वारा अधिकांश शराब की दुकानें आबादी वाले इलाकों या मुहल्लों, गाँवों में खुलवाई जाने लगीं। स्वाभाविक रूप से इसका पूरे उत्तराखण्ड और देश के अन्य स्थानों पर भी महिलाओं द्वारा विरोध होने लगा। उत्तराखण्ड में पहाड़ से लेकर मैदान तक सभी जगह महिलाओं के आन्दोलन तेज होने लगे। इसी समय जब काठगोदाम से शराब की दुकान स्थानान्तरित होकर दमुवाढूंगा के आबादी वाले इलाके में लायी गयी तो यहाँ विरोध शुरू हुआ।

इस पूरे आन्दोलन में कई बातें देखने को मिलीं, इस दुकान के लिए जमीन किसी स्थानीय व्यक्ति बल्यूटिया द्वारा दी गयी, कई लोगों का कहना था कि वे कांग्रेस नेता हैं, हालांकि बाद में जो कांग्रेसी कार्यकर्ता इसमें शामिल हुए उन्होंने उसके कांग्रेसी होने से इंकार किया।  इसलिए पुरुष स्थानीय ताकतवर व्यक्ति से दुश्मनी हो जाने के डर से इस आन्दोलन में खुले रूप से शामिल नहीं हो रहे थे, परन्तु कई पुरुषों ने इस आन्दोलन में अप्रत्यक्ष रूप से काफी समर्थन दिया। आन्दोलन प्रारम्भ में महिलाओ के स्वत: स्फूर्त  आक्रोश से ही उत्पन्न हुआ। कोई भी नेतृत्व न होने के कारण आन्दोलन एक निश्चित दिशा की ओर नहीं बढ़ पा रहा था परन्तु आन्दोलन के प्रति स्थानीय महिलाओं का समर्थन प्रशंसनीय था। महिलाओं ने प्रारंभ में शराब की दुकान हटवाने के लिए प्रशासनिक अधिकारियो को ज्ञापन देना, शराब की दुकान के आगे धरना-प्रदर्शन करना, सड़क पर चक्का जाम करना आदि सभी शांतिपूर्ण  तरीके अपनाये, परन्तु हमेशा की तरह सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। महिलाओं की बढ़ती भागीदारी देखकर शराब व्यापारी के कहने पर पुलिस भी वहाँ आई। एस़ डी़ एम़ और अन्य प्रशासनिक अधिकारी भी महिलाओं को शराब से मिलने वाले राजस्व का हवाला देकर वहाँ से हटने की बात समझाने लगे, और धमकाने लगे। एक बात जो गौर करने लायक थी शराब की दुकान के कर्मचारियों का आन्दोलनकारी महिलाओ से अत्यंत अभद्र व्यवहार। वैसे तो सामान्यत: पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को और विशेषकर गृहिणियों को कहीं भी कोई महत्व नहीं दिया जाता है परन्तु यहाँ पर तो पुलिस प्रशासन का पूर्ण संरक्षण पूर्ण प्राप्त होने के कारण शराब की दुकान के ये गुण्डेनुमा कर्मचारी महिलाओं से अभद्रता करने की हिम्मत कर रहे थे। बिना पूछे महिलाओं के फोटो खींचना, उनका मजाक उड़ाना, उनके लिए सामान्य बात थी। बाद में महिलाओं के तीखे प्रतिरोध के बाद उनका व्यहवार कुछ संतुलित हुआ।
(Alcohol Movement)

 राजनीतिक पार्टियों की बात करें तो काफी लम्बे समय तक स्थानीय महिलाएँ स्वयं ही इस आन्दोलन को चलाती रहीं। स्थानीय जनप्रतिनिधियों (ग्राम प्रधान, बी़डी़सी़ सदस्य आदि) की भागीदारी भी आन्दोलन में नगण्य ही रही। बाद में जब कुछ महिलायें कालाढूंगी विधानसभा के विधायक बंशीधर भगत (भाजपा) से धरने में आने और दुकान हटवाने की बात करने गयीं तो उन्होंने बड़ी बेशरमी के साथ कह दिया कि मेरी पार्टी की सरकार है, मैं कैसे धरने में आ सकता हूँ। तथाकथित डबल इंजन सरकार अत्यधिक बहुमत मिलने के बाद किस तरह जनता के प्रति लापरवाह और बेशर्म हुई, शायद इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता हैं। दूसरी तरफ हल्द्वानी विधानसभा की कांग्रेस विधायक इंदिरा हृदयेश को इस आन्दोलन में आने में एक महीने का वक्त लग गया। शायद तब तक इस आन्दोलन से अपने सियासी नफे- नुकसान का आकलन कर रही होंगी।

हम जानते हैं कि कांग्रेस-भाजपा जैसी पार्टियों की शराबबंदी की ओर बढ़ने की कभी कोई नीति नहीं रही बल्कि अपने कमीशन के कारण ये अलग-अलग शराब कंपनियों के मुनाफे के लिए आपस में लड़ते रहते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का डेनिस प्रेम तो जगजाहिर रहा है। जब इंदिरा हृदयेश और उनके पुत्र का इस आन्दोलन में प्रवेश हुआ तो कांग्रेस के स्थानीय छुटभय्ये नेता भी सक्रिय हो गए। शराब की दुकान के लिए जमीन देने वाले बल्यूटिया के भाई मुकुल बल्यूटिया (कांगेस) भी सक्रिय हो गए। परन्तु आन्दोलन में भी इनका योगदान थोड़ी देर के लिए सभा व अपने नेताओं की जयजयकार की नारेबाजी करना ही रहा। जबकि स्थानीय महिलाओं ने सुबह से शाम तक बारी-बारी से वहाँ धरना देना जारी रखा। महिलाएँ शराब खरीदने से भी लोगों को रोकती रहीं।

फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के आदेश जिसके अनुसार दुकानों को वापस राजमार्गो पर खोला जा सकता है, के बाद दमुवाढुंगा की दुकान भी वापस अपनी पुरानी जगह पर स्थानान्तरित हो गयी और आन्दोलन भी समाप्त हो गया।

अब हम बात करते हैं इस विषय में जनता के बीच फैलाये जाने वाले भ्रमों के बारे में। सबसे पहले तो राजस्व के विषय में यह तर्क दिया जाता है कि शराब की दुकानें बंद करने से सरकार को राजस्व का भारी नुकसान हो जायेगा। चुनावी पार्टियों के एजेंटों द्वारा तो यहाँ तक बात फैला दी जाती हैं कि शराबबंदी से सरकार के सारे कार्य ही बंद हो जायेंगे, कर्मचारियों को वेतन मिलना भी बंद हो जायेगा। राजस्व को लेकर जनता के बीच यह भ्रम बहुत गहराई तक फैलाया गया है। लगभग हर दूसरा व्यक्ति आपको यह कहता हुआ मिल जायेगा कि शराब तो सरकार बंद ही नहीं कर सकती इसी से तो राजस्व मिलता है। अगर हम गौर करें तो शराब को मुनाफे का साधन बनाने का काम अधिकांशत: 90 के दशक के बाद ही हुआ, तो क्या उससे पहले सरकारें नहीं चल रही थीं क्या कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल रहा था।
(Alcohol Movement)

जिन राज्यों में शराबबंदी लागू है, वहा सरकारें किस तरह चल रही हैं। गुजरात में 1947 के बाद से ही शराबबंदी लागू है। बिहार में शराबबंदी लागू है। एक बात और है क्या हमारे राज्य में राजस्व प्राप्ति के अन्य संसाधन नहीं हैं, सिडकुल में आने वाली कंपनियों से लम्बे समय से कोई उत्पाद शुल्क नहीं लिया जा रहा। ये कंपनियाँ अपने मजदूरों का भी जमकर शोषण करती हैं। यदि इन मुनाफाखोर कंपनियों से केवल 1 प्रतिशत भी उत्पाद शुल्क लिया जाये तो राजस्व में काफी बढ़ोतरी की जा सकती है। क्या इन नेताओं मंत्रियों के बड़े-बड़े काफिलों और बड़ी-बड़ी फिजूलखर्चियों पर रोक लगाकर राजस्व घाटा कम नहीं हो सकता? हर वर्ष सरकार द्वारा कर्जें में होने के नाटक के बीच भी सरकारी कार्यक्रमों और मंत्रियों-विधायकों में होने वाली फिजूलखर्ची में कोई कमी नहीं दिखाई देती है। जनता के लिए हमेशा बजट का रोना रोया जाता है। कई अन्य वैकल्पिक तरीके हो सकते हैं जिनके द्वारा राजस्व प्राप्त किया जा सकता है परन्तु नेताओं की नीयत हमेशा शराब कंपनियों के कमीशन से अपने घर भरने की रही है। इसलिए ऐसी बहानेबाजियाँ की जाती हैं। पूँजीपतियों के लिए तरह-तरह की छूट देने वाली और उनके करोड़ों अरबों के कर्जे माफ करने वाली सरकारें जब राजस्व का रोना रोयें तो इसे हास्यास्पद ही कहा जायेगा।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह भी हैं कि यदि किसी गाँव, मोहल्ले या शहर की 60-70 प्रतिशत जनता यह चाहती है कि उसके क्षेत्र में शराब की दुकान न खुले तो क्या एक लोकतांत्रिक देश में उनकी इच्छा उनके विचार का सम्मान नहीं किया जाना चाहिए। उत्तराखण्ड में हम शराब का विरोध नैतिक वजह से नहीं कर रहे अपितु सरकार शराब द्वारा जिस तरह जनता विशेषकर युवाओ को बर्बाद करने को आतुर हैं, उसका विरोध होना ही चाहिए।
(Alcohol Movement)

शराबबंदी के विरोध में दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि यदि सरकार ने शराब बंद की तो अवैध रूप से शराब बिकेगी। अब इसका तो एक ही जवाब है कि यदि कोई चीज अवैध रूप से बिक रही है इसलिए उसे वैध कर दिया जाना चाहिए? तब तो स्मेक चरस गांजा भी वैध कर दिया जाये, इससे सरकार का मुनाफा और बढे़गा। अगर राजस्व जनता को बर्बाद करके पाने से भी गुरेज नहीं है तो ह्यूमन ट्रेफिकिंग को भी वैध बनाया जा सकता है। ऐसे घटिया तर्क जनता के बीच फैलाये जा रहे हैं। एक जिम्मेदार सरकार का काम किसी भी अवैध कारोबार को रोकना है न कि अपनी असफलता छुपाने के लिए उसको वैध बनाने की दलीलें देना। परन्तु ऐसी जनविरोधी सरकारों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। अधिकांश क्षेत्रों में अवैध शराब का कारोबार प्रशासनिक संरक्षण में ही फल फूल रहा है। शराब के खिलाफ कई बार शराबी को ही दोष देकर सरकार को बचाने का काम भी किया जाता है कि सरकार जबरदस्ती थोड़ी कर रही है। ये बात सच हैं परन्तु क्या नशे का व्यापार करना नशा करने से ज्यादा बुरा काम नहीं हैं। शराब विरोधी आंदोलनों में एक नारा प्रशिद्ध है-

शराब पीने वाला परिवार का दुश्मन है, 
शराब बेचने वाला समाज का दुश्मन है
और शराब बिकवाने वाला देश का दुश्मन हैं

यह नारा कई लोगों के बेतुके सवालों का जवाब देता है। पहली लड़ाई देश के दुश्मनों से ही होनी चाहिए। शराब विरोधी आंदोलनों के खिलाफ कई तरह के भ्रम सरकारों द्वारा जनता के बीच फैलाये जा रहे हैं। दूसरी तरफ जनता के बीच लम्बे संघर्षों की विफलता के बाद एक निराशा भी फैली है। आज इस व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के लिए किये गए व्यवस्था परिवतन के संघर्ष ही जनविरोधी सरकारों का जवाब हो सकते हैं। जरूरत है एक नयी जनवादी व्यवस्था का विकल्प देने की।
(Alcohol Movement)

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