भारत के मुख्य न्यायाधीश के नाम खुला पत्र

इंदिरा जयसिंह

भारत के मुख्य न्यायाधीश के नाम यह पत्र सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह द्वारा 8 मार्च 2019 को महिला दिवस के अवसर पर न्यायपालिका में स्त्रियों के प्रति भेदभाव करने वाली भाषा के प्रयोग के विरोध में लिखा गया।      

प्रिय महोदय,
वकालत का व्यवसाय मुख्य रूप से भाषा की शक्ति, इसकी व्याख्या तथा सामाजिक-राजनीतिक अवधारणा पर आधारित है। भाषा हमारा हथियार, कौशल तथा ढाल है। हम अपने शब्दों के माध्यम से संघर्ष करते हैं तथा शब्दों द्वारा ही हम अपने प्रदत्त अधिकारों की सुरक्षा करते हैं। जैसा कि डेबोरा कैमरोन* ((Deborah Cameron) ने कहा है, ”लिंग भेदवादी भाषा से यह पता चलता है कि जो लोग इसका प्रयोग व प्रसार करते हैं, वे महिलाओं को दोयम श्रेणी का नागरिक, सनातन भोग-विलास की वस्तु, अस्तित्वहीन तथा बुराई की प्रतीक मानते हैं।” इस प्रकार लिंग भेदवादी भाषा हिंसक है। इसीलिए हमारे वकालत के पेशे में प्रत्येक को यह याद दिलाना आवश्यक है कि शब्दों की इस हिंसक शक्ति का प्रयोग न्यायालय के अन्दर तथा बाहर समाप्त होना चाहिए। भाषा शब्दों के आदान-प्रदान के उपकरण से कहीं अधिक है। यह सहज रूप से समाज, संस्कृति तथा राजनीति की सूचक है, जो उस समाज में प्रचलित रवैये तथा प्रवृति को दर्शाती है। इसलिए जब हम भाषा में ‘लिंग पूर्वाग्रह’ की चर्चा करते हैं तो हम ‘श्रेष्ठ-निम्न’ की मिसाल का उल्लेख करते हैं, र्जो लिंगभेद के कारण विकसित हुई है। लिंग एक सामाजिक रचना है जो रूढ़िवादी सोच, ठप्पों तथा नैतिक मूल्यों के बोझ तले दबी हुई है।
(Advo. Indira Jaisingh’s Letter to The Chief Justice of India)

इस देश का संविधान लैंगिक भेदभाव से हमारी सुरक्षा करता है तथा माननीय न्यायालय का यह मानना है कि लैंगिक रूढ़िवादिता को बनाये रखना भी एक प्रकार का भेदभाव है। अदालत में मेरे कई वर्षों के अनुभव के दौरान ऐसी अनेक घटनाएँ हुईं, जब वकीलों की लैंगिक भेदभाव से भरी टिप्पणियों का न्यायपीठ (बैंच) ने संज्ञान नहीं लिया। इस प्रकार की टिप्पणियों को स्वीकार करना तथा इनको अहानिकर मानते हुए दरकिनार कर देना इन्हें वैधता का दर्जा देना है। यदि न्यायाधीश न्यायालय में की गर्ई  लिंगभेदवादी भाषा या टिप्पणियों का विरोध नहीं करते तो वे धारा 15 द्वारा प्रदान किये गये मूलभूत अधिकारों को सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाते तथा अपने कर्तव्य पालन में चूक जाते हैं। हाल ही में कोर्ट रूम में एक वरिष्ठ पुरुष अधिवक्ता द्वारा मुझे किसी की ‘पत्नी’ कहकर सम्बोधित किया गया, न कि मेरे नाम से या वकील के रूप में। हालांकि मेरे द्वारा आपत्ति करने पर उन्होंने तुरन्त गलती सुधार ली। गौरतलब है कि जज ने कोई विरोध नहीं किया तथा अधिवक्ता पर यह कहने के लिए छोड़ दिया कि यह एर्क लिंगभेदी टिप्पणी है। एक अन्य अवसर पर एक अधिवक्ता ने किसी राष्ट्रीय चैनल में चल रही बहस में पैनल के सदस्य पर टिप्पणी की कि ‘यदि तुम डरे हुए हो तो पेटीकोट और चूड़ियाँ पहन लो।’ एक अन्य अवसर पर जब मैं सुप्रीम कोर्ट में तर्क कर रही थी, एक वरिष्ठ पुरुष अधिवक्ता ने मुझे ‘वह महिला’ कहकर सम्बोधित किया जबकि वह अन्य पुरुष अधिवक्ताओं को ‘मेरे विद्वान साथी’ कहकर सम्बोधित कर रहे थे और यह भी तब जब मैं अतिरिक्त सॉलीसीटर जनरल थी और केन्द्रीय जाँच ब्यूरो का प्रतिनिधित्व कर रही थी। मैं न्यायाधीश से उन्हें फटकार लगाने की उम्मीद कर रही थी, पर ऐसा नहीं हुआ। वरन् वे उस दृश्य का आनन्द ले रहे थे तथा मुस्कुरा रहे थे। मैंने उनसे इस अपमानजनक भाषा से सुरक्षा हेतु कहा तो उन्होंने कहा ”मैडम, आपको सुरक्षा की कोई आवश्यकता नहीं हैं। आप अतिरक्षित हैं।” तो यदि आप अपने अधिकारों के लिए खड़े होते हैं, समानता चाहते हैं तो आप शोषित किये जाते हैं, तो बेहतर है कि आप मुस्कुराएं और सहन करें।

दूसरे अवसरों पर मुझे कर्णभेदी चुभती हुई आवाज वाली कहा गया। जबकि मेरे पुरुष सहयोगियों को अदालत में आक्रामक व्यवहार पर प्रोत्साहित ही किया गया। ऐसे अनुभव चोट पहुँचाते हैं। मैं यह बात पहले भी कह चुकी हूँ कि मैं सुप्रीमकोर्ट के गलियारों में अपने सफेद बालों और सीसी टीवी की निगरानी के बावजूद लैंगिक रूप से प्रताड़ित की गई हूं।
(Advo. Indira Jaisingh’s Letter to The Chief Justice of India)

महिलाएं किसी भी अन्य बात की तुलना में कार्यस्थल पर अपने आत्मसम्मान की लालसा रखती हैं लेकिन अपनी पचास वर्षों की प्रैक्टिस में मुझे अदालतों की संस्कृति में, जो कि मुख्य रूप से पुरुष प्रधान है, कोई सुधार दिखाई नहीं दिया। महिलाएं हालांकि बड़ी संख्या में वहां उपस्थित रहती हैं पर सार्वजनिक विमर्श से वे अदृश्य रहती हैं। जब तक कि वे किसी की माँ, बहन या पुत्री न हों या राजनीतिक रूप से सत्ता से जुड़ी न हों। लिंग की दृष्टि से एक न्यायसंगत तथा समानतापूर्ण समाज के निर्माण में स्त्रीविरोधी भाषा के प्रयोग एवं पोषण की अनुमति राजनीतिक-सामाजिक या कानूनी बोलचाल में नहीं दी जा सकती। अदालतों के निर्णयों को देशभर में कानून का दर्जा प्राप्त है, पर दुर्भाग्यवश अदालतों में इस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जाता है, जो पितृसत्ता को बनाये रखती है तथा महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी, घिसे-पिटे व्यवहार का समर्थन करती है तथा ऐसे पूर्वाग्रहों को आरोपित करती है जो हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति के लिए हानिकारक हैं। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने अपने एक निर्णय में ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने वाली एक महिला को ‘कीप’ (रखैल) कहकर सम्बोधित किया। अदालती फैसलों की भाषा जो महिला को पराधीन सिद्ध करती है, उन्हें पुरुषों की सम्पत्ति मानती है या पुरुषों की यौन इच्छा पूर्ति का साधन समझती है, उसे मिटा देना चाहिए या प्रयोग करने से रोका जाना चाहिए। केवल इसी तरह लिंग की दृष्टि से सम्वेदनशील अदालत तथा बेंच बनायी जा सकती है।

न्यायपालिका कानून की भाषा या कानूनी भाषा की संरक्षक तथा अभिभावक है। यह भाषा समानता का मानक स्थापित करने वाली होनी चाहिए। ताकि राष्ट्र में सहमति योग्य कानूनी विमर्श हो सके। प्रजातंत्र में कानूनी भाषा का निर्धारण इस बात से होना चाहिए कि यह कितनी स्पष्ट तथा प्रभावपूर्ण शैली में संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों तथा वचनबद्धता की रक्षा करती है, जिसमें लैंगिक न्याय भी शामिल है। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मैं आपसे आग्रह करती हूँ कि ऐसे प्रयास किए जांय कि देशभर के अधिवक्ता तथा न्यायाधीश न्यायालय में या उससे बाहर अपनी भाषा की लैंगिक सम्वेदनशीलता हेतु जांचे जांय तथा सावधान रहें। संविधान की धारा 15 इस देश के सभी नागरिकों को पिछले 70 वर्षों से चाहे वे किर्सी ंलग के हों, समान स्थान प्रदान करती है।
(Advo. Indira Jaisingh’s Letter to The Chief Justice of India)

अदालतें न्याय प्राप्ति का केन्द्र हैं। वहां इस प्रकार की लैंगिक रूढ़ियां, जो किसी लिंग को बदनाम करती हैं या नीचा दिखाती हैं, जारी रखना क्षमा के योग्य नहीं है।

जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने नवतेज जौहर बनाम भारत सरकार (2018) के फैसले में अपना निर्णय देते हुए लिखा है कि धारा 15 (1) के अन्तर्गत किसी वर्ग के विषय में रूढ़िवादिता को जारी रखना मूल अधिकारों का हनन है। इस बात को उन्होंने पुन: सबरीमाला मन्दिर में प्रवेश के मामले में सही ठहराया और कहा, ”यह सुझाव कि स्त्रियां व्रत का पालन नहीं कर सकतीं, उन्हें कलंकित करना है तथा उन्हें कमजोर और कमतर मानव के रूप में रूढ़िबद्ध करना है। एक वैधानिक न्यायालय को ऐसे दावों को नहीं मानना चाहिए।”

मैं यहाँ कुछ सुझाव देने की स्वतंत्रता ले रही हूँ और आशा करती हूँ कि आप उन पर विचार करेंगे।

1. भारत के मुख्य न्यायाधीश के दिशा निर्देशन में देश की न्यायपालिका को नेतृत्व करते हुए एक जाँच आयोग गठित करना चाहिए, जो अदालती संस्कृति की लिंगभेद सम्बन्धी लेखा परीक्षा करे।

2. एक तथ्यान्वेषी समिति का गठन किया जाय, जो लैंगिक टिप्पणियों से युक्त अदालती दस्तावेजों तथा निर्णयों के लिखित प्रमाण प्रस्तुत करे ताकि इन निर्णयों द्वारा की गई हिंसा की गम्भीरता को समझा जा सके। इन शब्दों व वाक्यों को अधिवक्ता तथा न्यायाधीशों द्वारा अदालती भाषा में उपयोग किये जाने से प्रतिबंधित किया जा सके।
(Advo. Indira Jaisingh’s Letter to The Chief Justice of India)

3. ऐसे अधिवक्ता या न्यायाधीश जिन्होंने अदालत या सामाजिक जीवन में लैंगिक भेदभावपूर्ण व्यवहार को नजरअंदाज किया या जो उसमें लिप्त रहे हों, वरिष्ठ पद में प्रोन्नति नहीं दी जानी चाहिए तथा ऐसे प्रयास होने चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों को नेतृत्वकारी, आदर्श या अनुकरणीय भूमिका न दी जाय।

4. पूरे देश में ऐसे परिपत्र या निर्देश जारी किए जांय जिससे अधिवक्ता, वादी या अन्य के द्वारा न्यायालय में लैंगिक भेदभावपूर्ण भाषा का प्रयोग रोका जा सके।

महोदय, न्यायपालिका न केवल लैंगिक भेदभावपूर्ण शब्दविन्यास को खारिज करने हेतु उत्तरदायी है वरन् उसकी जिम्मेदारी यह भी है कि कानून के पढ़ने, व्याख्या करने व स्पष्टीकरण में भी ऐसी भाषा को पूर्णरूप से हटाया जा सके। भाषा समय और संस्कृति को प्रतिध्वनित करती है। उसमें  यह शक्ति भी है कि वह राष्ट्र के विचारों को प्रभावित करे तथा एक समाज की संस्कृति को ढाले। न्यायपालिका को अपनी लिखित तथा बोलने की भाषा में महिलाओं के प्रति इस अपमानजनक प्रवृत्ति को समाप्त करना चाहिए।

न्याय के प्रतीक के रूप में चाहे आँखों पर पट्टी बाँधे एक महिला हो पर हममें से कोई भी प्रतीकों पर समझौता नहीं करेंगी।

आपको विश्व महिला दिवस की शुभकामनाएँ।

अनुवाद: गंगोत्री पाण्ड

* डेबोरा कैमरोन एक नारीवादी भाषावैज्ञानिक हैं तथा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है
(Advo. Indira Jaisingh’s Letter to The Chief Justice of India)

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