शाहीनबाग में एक दिन

A Day at Shaheen Bagh

-चन्द्रकला

दिल्ली के जसोला विहार मैट्रो स्टेशन के साथ एक और मैट्रो स्टेशन का नाम जुड़ा है और वह नाम है शाहीन बाग। मैजेन्टा लाइन में बॉटनिकल गार्डन के दो स्टेशन पहले जसोला विहार/शाहीन बाग पर उतरते ही बायीं और जाने वाले रास्ते में नाले के ऊपर एक मैटल पुल है। लम्बे से इस पुल को पार करते ही एक छोटा सा बाजार शुरू हो जाता है जहां कि मैजिक, ई रिक्शा भागते-दौड़ते हुए लोगों को गन्तव्य तक पहुंचा रहे हैं। करीब 300 मीटर सीधा चलते हुए जैसे ही आप आगे बढ़ते हैं तो एक पुलिस का बैरिकेड पड़ेगा जहां से शाहीन बाग का रास्ता अब बन्द कर दिया गया है। इसलिए आपको बाजार के भीतर घुस कर ही उस मुख्य सड़क पर आना होता है जहां कि पिछले साठ दिनों से सीएए, एनआरसी और एनपीआर के विरोध में धरना चल रहा है और देश के विभिन्न इलाकों के लोग यहां आकर ऊर्जा लेकर जा रहे हैं। उमा दी के साथ शाहीन बाग जाने का सौभाग्य मुझे भी मिला और तय समय पर 13 जनवरी को 11बजे मैं भी चल पड़ी शाहीन बाग की ओर।
(A Day at Shaheen Bagh)

सही मैट्रो लाईन न पकड़ने के कारण मुझे कुछ देर हुई लेकिन मैटल से बने पुल के अन्तिम छोर पर उमा दी और गीता से मुलाकात हुई। पूछ-पूछ कर ही हम उस दिशा की ओर बढ़े जिसका फायदा यह हुआ कि हम समझ पाये कि वहां पर अधिकांश लोग इस धरने से परिचित हैं। पुलिस बैरिकेड को पारकर हम धरना स्थल पर पहुंचे तो दूर से ही पोस्टरों से घिरा एक तम्बू दिखा जहां पर उन विभिन्न संगठनों के बैनर लगे थे जो इस धरने को समर्थन देने आते रहे होंगे। क्रान्तिकारी शहीदों के साथ ही नेहरू, गांधी जैसे कई तस्वीरों के साथ ही विभिन्न नारों से एक साधारण सा मंच बनाया गया था जिसकी शोभा यहां पर विभिन्न भावों से भाषण, कविता, गीतों से अपनी बात कहने वालों से हो रही थी। सबसे आकर्षक एक बूढ़ी दादी का पोस्टर था, जिस पर लिखा था- तेरे गुरूर को जलायेगी वो आग हूँ, आकर देख मुझे मैं शाहीन बाग हूँ।

यहां पर पहुंचते ही लगा कि बहुत कम भीड़ है लेकिन बाद में समझ आया कि यह ऐसा समय था जब कि महिलाएं अपने घरों का काम निबटाने और पुरुष राशन-पानी की खोज में निकले हुए थे, धरने के साथ यह जिम्मेदारी भी तो निभानी है उन्हें। एक निचली दीवार में जाकर हम बैठ गये और वहीं से ज़ायज़ा लेने लगे। साथ में बैठी हुई एक गरीब बूढ़ी दादी से बोलना शुरू किया। जब मैंने उनसे पूछा कि यह धरना क्यों चल रहा है तो उन्हें आश्चर्य हुआ मेरे प्रश्न पर, शायद मन ही मन मेरी नादानी पर हंसी थीं वह। तभी तो तुरन्त मुझे समझाने लगीं कि ‘यह धरना इसलिए चल रहा है कि हिन्दू और मुसलमान गरीब लोगों के लिए एक काला कानून मोदी और अमित शाह की सरकार लाई है जिसमें एक ऐसी चारदीवारी में कैद कर देगी जहां कि हमें छोेटे-छोटे कमरों में कैद कर दिया जायेगा जहां से हम कभी भी बाहर नहीं निकल पायेंगे और हमारे घर-बार सब  छीन लिए जायेंगे क्योंकि वे लोग जो कागज़ मांग रहे हैं हम गरीब लोग कहां से लाकर देंगे। इसलिए सब मिलकर विरोध कर रहे हैं कि इस काले कानून सीएए को वापस लेने का, तुम आज आ रही हो, यहां तो कितने लोग-बाग आ कर चले गये।’’ मैं समझ गई कि एक अनपढ़ महिला ने जब अपनी भाषा में मुझे नागरिकता कानून की परिभाषा बता दी तो अन्य लोगों से अब जानने की जरूरत नहीं है कि वे यहां पर इतनी कठिन परिस्थितियों में भी इतने दिन तक धरने को कैसे चला पा रहे हैं।
(A Day at Shaheen Bagh)

दुनियाभर में यह महिलाएँ ही हैं जो बाहर आने का आह्वान कर रही हैं। आज दुनिया में सबसे अच्छी राजनीतिक महिलाएँ ही हैं, न्यूजीलैण्ड की प्रधानमंत्री को देखिए। उनके अंदर बहुत ज्यादा हमदर्दी है और दबंगों के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत है। शाहीनबाग को देखिए। ये वही महिलाएँ हैं जो रूढ़िवादी समाजों में अपनी परंपरागत भूमिकाएँ निभाती रही हैं। जब एक बार अति हो जाती है तो वे बाहर निकलने का फैसला कर लेती हैं जबकि पुरुष बस वापस आ जाते हैं। महिलाएँ हमेशा से ऐसी ही रही हैं।

अनुराग कश्यप, फिल्मकार, रविवार फरवरी 2020

हम बैठे-बैठे वक्ताओं को सुनते रहे जो अपनी जु़बान और अपने ही अन्दाज से बता रहे थे कि क्यों इस कानून को वापस लेने की जरूरत है। मेवात, चैन्नई, मुम्बई, सहारनपुर, मेरठ, नागपुर से लोग आये थे। मेवात से आये एक बुजुर्ग ने राणा सांगा की कहानी सुनाते हुए हिन्दू और मुस्लिम एकता का उदाहरण दिया तो सहारनपुर से आये एक नवयुवक ने ‘इस हिन्दुस्तान से हमारा सीधा रिश्ता है तुम कौन हो बे’ सुनाया तो दिल्ली से ही आये एक व्यक्ति ने यह कहा कि यदि वह इस आन्दोलन और यहां के लोगों के कुछ काम आ सके तो वह सहर्ष यहां आ जायेगा। टैन्ट के भीतर जिस तरह से महिलाओं की संख्या बढ़ रही थी, उसी अनुपात में बाहर विभिन्न वेशभूषा में खड़े पुरुषों की भीड़ भी कतई कम नहीं कही जा सकती। मजदूरों की टोलियां वक्ताओं के उत्साह को बढ़ाने के लिए भरपूर सहयोग कर रही थीं। हालांकि मीडिया वाले आकर सवाल-जबाव और फोटो खींचने के लिए जब मंच के आसपास व्यवधान पैदा कर रहे थे तो शोर जरूर उठ जाता था।
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धरने को सहयोग देने के लिए कितने ही तरीके निकाले गये हैं। एक कम्पनी के प्रचारक वहां बैठी महिलाओं को सन्तरे बांटने आ गये तो कोई बच्चों को टॉफी बांटने लगा। कहीं कोई पानी दे रहा था कोई कुछ और। शायद सभी कुछ न कुछ योगदान दे देना चाहते हैं इस आन्दोलन को। धीरे-धीरे महिलाओं की संख्या बढ़ने लगी और हम बैठे हुए थकने लगे। उमा दी के साथ आईं गीता को वापस जाना था सो हम खडे़ हो गये। मैं आगे बैठी दादियों की बात सुनने और उनसे रूबरू होने चली गयी। तभी वहां पर कुछ महिलाएं सशंकित होकर आ गईं और पूछने लगी कि हम कौन हैं और किस उद्देश्य से यहां पर आई हैं। जब मैंने उत्तराखण्ड से उनके आन्दोलन को समर्थन देने आने की बात कही तो वे सभी बहुत खुश हुईं और बातों-बातों में ही मुझे नमाज पढ़ने के लिए आमंत्रित करने लगीं किन्तु जब मेरा नाम जाना तो बोलीं कि कोई बात नहीं हम नमाज पढ़ने जाते हैं आप यहां की देखभाल करें, सुनकर मन खुश हुआ उनका भरोसा देखकर।

दिन भर धरने पर बैठे हुए, आते-जाते और बोलने वालों को सुनते रहे। उनके दिल की आवाज सुनकर लगता था, जैसे अपने मन की बात बोल रहे हैं। स्टेज का संचालन शाहीन ने सम्हाला हुआ था जो कि एक-एक करके वक्ताओं को बुला रही थीं और अनावश्यक बोलने वालों पर लगाम भी लगा रही थी। जितनी देर भी वहां आये लोगों को सुना तो कहीं भी नहीं लगा कि यह धरना किसी एक मजहब का है बल्कि जितनी राजनीतिक-सामाजिक व जन से जुड़ी बातें वहां पर हो रही थीं, वह एहसास करा रही थी कि यह आन्दोलन वास्तव में इस देश कि धर्मनिरपेक्षता को बचाये रखने का प्रयास है। यहां माहौल में एक अजब सा अपनापा लगा, हर कोई एक ही उदद्ेश्य से आया हुआ लग रहा था। मौसम में वसन्त की आहट थी और तेज हवाएं बैनर और पोस्टरों के सन्देशों को दूर तक ले जाने को आतुर दिख रही थीं। दोपहर होने तक भूख का एहसास होने लगा तो उसी समय कुछ बच्चियां एक मुट्ठी मूंगफली बांट गईं। उस समय शहद से भी मीठा वह स्वाद शायद हमेशा याद रहेगा।
(A Day at Shaheen Bagh)

लगातार बैठे हुए जब हम थकने लगे तो लगा कि अब यहां आये हैं तो कुछ महिलाओं से बात कर ली जाय। हम उठकर आसपास का मुआयना करने लगे। तब आन्दोलन को संयोजित करने वाली एक महिला शगुफ्ता से बातचीत हुई, उन्होंने 15 दिसम्बर से शुरू हुए इस धरने के कारणों से अब तक की स्थितियों से संक्षिप्त रूप से हमें अवगत कराया। शौचालय जाने का एहसास हुआ तो महिलाएं हमें पास के एक हॉस्पिटल में ले गयीं। अस्पताल मालिक ने पानी न होने का बहाना कर हमें जाने से रोक दिया तब अहसास हुआ कि इतने समय से चल रहे इस धरने में महिलाओं की इस समस्या को समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता की तरह ही महत्वहीन समझ लिया गया है। स्थानीय महिलाओं के साथ ही दूर से आने वाली महिलाओं को कितनी दिक्कत होती होगी, कुछ घण्टे में ही समझ आ गया था। अस्पताल का शौचालय पिछले दो महीने से इस्तेमाल किया जा रहा था। अन्तत: महिलाओं के आग्रह पर अस्पताल मालिक ने हमें इस्तेमाल करने की इजाज़त तो दे दी लेकिन उन्होंने अपनी परेशानी बताते हुए कहा कि जितना तक सम्भव था हमने हर तरह की मदद धरने को दी है। यहां तक कि घायलों के इलाज के लिए अपने डाक्टर तक भेजे। किन्तु अब धरने की वजह से अस्पताल में मरीज नहीं आ रहे हैं और घाटा भी बढ़ता जा रहा है। अत्यधिक गन्दगी के कारण सफाई कर्मी भी अब सफाई के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। इसलिए अब हम शौचालय का इस्तेमाल करने में ऐतराज करने लगे हैं।

 बाहर निकले तो हमने चाय पी फिर जब हम टैन्ट में जाने लगे तो महिलाओं की चैकिंग के लिए एक महिला शहनवाज बैठी थीं जिन्होंने बताया कि भीड़ बढ़ने के बाद अपनी ड्यूटी सम्हालती हैं और आसपास तैनात महिलाएं आवांछित महिलाओं पर निगरानी रखती हैं। जब दुबारा हम आकर बैठे तो उमादी ने अन्तत: मंच से बोलने का फैसला कर ही लिया जो कि सुबह से टल रहा था। तभी मुझे लगने लगा कि आन्दोलन की ताकत ही हमें भीतर से ताकत देती है। कुछ देर तक बैठ कर हमने बाहर का माहौल देखने का फैसला किया।

आसपास बन्द दुकानों के पास स्कूल से आ गये बच्चे पोस्टर बनाते दिखे। यहां पर दुकानों के शटर और दीवारों पर बच्चों के नन्हे हाथों से बनाये कितने ही चित्र व पोस्टर टंगे हुए थे। चाय के ठेलों के साथ ही कुछ अन्य ठेलों पर झण्डे, बैनर, हैयर बैन्ड, हैन्ड बैन्डस मिल रहे हैं जिनमें नो सीएए लिखा हुआ था युवा खरीदारों की टोलियां वहां दिख रही थीं। धरने से बाहर दूसरी सड़क पर गये तो देखा कि बस स्टैण्ड को पुस्तकालय के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। करीने से दरी बिछा कर विभिन्न विषयों की पुस्तकों को सजाया गया था, फातिम बीबी-सावित्री बाई फुले के नाम के इस पुस्तकालय कोे देखकर कोई भी पुस्तक पे्रमी यहां बैठना नहीं तो कुछ पल खडे़ होना जरूर चाहेगा। इस पुस्तकालय ने तो यह महसूस करवा दिया कि यह आन्दोलन केवल भावनाओं व धार्मिकता पर आधारित नहीं है बल्कि यह आन्दोलन राजनीति और समाज को समझने की सोच को भी विकसित करने का मादद रखता है। इस लाइब्रेरी में बैठकर पढ़ने की व्यवस्था है, जब चाहें आप वक्ताओं को सुनें और मन करे तो साथ ही पढ़ाई भी कर सकते हैं। पुस्तकालय से भी बेहतरीन उसके साथ ही लगा एक स्कूल का बोर्ड था जो कि छोटी सी जगह पर लगा हुआ था। जिसमें लिखा गया था, पढ़ने वालों की उम्र 4 से 100 वर्ष और समय शाम 4 बजे से सुबह 6 बजे तक। यहां पर कॉलेज से आने वाले छात्र-छात्राएं आकर पढ़ाते हैं।
(A Day at Shaheen Bagh)

सड़क में एक ओर जहां 14 फरवरी वैलन्टाइन डे पर दिल बना कर मोदी के स्वागत की तैयारी करते बच्चे दिखे तो धरने की पहरेदारी करते बुजुर्ग पुरुष बैठे दिखे। जो आश्वस्त कर रहे थे कि आप यहां पर किसी समय रहें आपको किसी भी तरह का कोई डर नहीं है, हम रात-दिन यहां पर बारी-बारी से पहरेदारी कर रहे हैं। धरना स्थल की ओर नोएडा से आने वाली सड़क के मुहाने पर लोहे की जाली से बना भारत का विशाल नक्शा आपका स्वागत करता प्रतीत होता है जो कि मुम्बई से आये कलाकारों ने बनाया है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र-छात्राएं अपना रात-दिन देकर यहां पर एक इण्डिया गेट बना रहे हैं, जिस पर नाागरिकता कानून के विरोध में शहीद होने वाले लोगों के नाम दिये जा रहे हैं विविध रंगों के मिश्रण से बना यह गेट रात की रोशनी में चमकता। यहां यूँ मालूम होता है जैसे कि सभी इस आन्दोलन को अपना बेहतरीन देने के प्रयास में हैं तभी तो सभी अपने-अपने तरीके से कुछ न कुछ योगदान दे रहे हैं। बिन्द्रा जी ने यहां आने वालों के लिए न केवल लंगर चालू किया है बल्कि यह बुजुर्ग सिक्ख यहां पर अपने सहयोगियों के साथ मौजूद रहकर अन्य व्यवस्था भी देख रहे हैं।

हमारा मन तो था कि कुछ देर ओर यहां रहें लेकिन अपनी सीमाओं के कारण हमारा अब वहां रुकना सम्भव नहीं था। यहां की फिजा़ देखकर लग रहा था कि समूह में आकर ही हम बेहतर योगदान दे सकते हैं और अधिक से अधिक सीख सकते हैं। यहां की महिलाओं से जो कि आज दुनिया में मिसाल बन चुकी हैं और साबित कर रही हैं कि अन्जाम की चिन्ता किये बिना दृढ़ता से फैसला लिया जाय और उसमें सामूहिकता मौजूद हो तो बड़ी से बड़ी ताकतों से टकराया जा सकता है।
(A Day at Shaheen Bagh)

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