कहानी- शुरूआत

कमल कुमार

अब मैं रिटायर हो गई हूँ।
क्या?
मैं रिटायर हो गई हूँ।
तुम रिटायर हो गई हो? मतलब? तुम कहाँ रिटायर हो गई हो? तुम कौन-सी जॉब करती थी? कौन-से दफ्तर जाया करती थी।

क्यों? गृह मंत्रालय के ‘होम यूनिट’ में सीईओ थी। तुम्हें मेरे सीईओ होने पर आपत्ति है? तुम ट्रांसपोर्ट मिनिस्टरी से अंडर सेक्रेटरी रिटायर हुए हो, तो मुझे भी अंडर सेक्रेटरी के पद से रिटायर मान लो। यह भी अच्छा न लगे तो सेक्शन आफिसर ही सही। पैंतीस साल काम किया। अब रिटायर हो गई हूँ।

उसका दिमाग घूम रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह औरत क्या कह रही है? क्या हो गया है इसे? उसने उसे जबर्दस्ती बांह पकड़कर बैठाया। क्या कह रही हो तुम? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा… उसने अपना हाथ छुड़ाया था, बेकार में हाथापाई मत करो। जो कहना है, कहो।

वह हतप्रभ था। क्या हो गया है तुम्हें? कल कह रही थी, मेरी छुट्टी है, खाना नहीं बनाऊंगी।
क्यों मेरी छुट्टी नहीं हो सकती क्या? जब तुम दफ्तर जाते थे, तो सप्ताह में तुम्हें दो छुट्टियाँ मिलती थीं- शनिवार और इतवार।
तुम दफ्तर जाती हो क्या? नौकरी करती हो क्या?
(Story by Kamal Kumar)

हाँ करती हूँ। ‘होम केयर इंडस्ट्री’ में हूँ। हाँ, सबसे मुश्किल उद्योग। इसमें काम के घंटे निश्चित नहीं होते। कोई ओवरटाइम नहीं मिलता। कोई छुट्टी नहीं होती, न कैजुअल, न मेडिकल, न प्रिविलेज। पूरे सात दिन सप्ताह के, तीस दिन महीने के और तीन सौ पैंसठ दिन वर्ष में काम करना होता है। प्रतिदिन सुबह से शाम तक, शाम से रात तक काम करना होता है। कोई प्रमोशन, कोई इन्क्रीमेंट नहीं। फिर अवैतनिक! हाँ बोर्डिंग और लॉजिंग फ्री है।

तुम कैसी बातें कर रही हो? क्या हो गया है तुम्हें?
तुम्हारे काम के निश्चित घंटे थे। तुम्हें ये सारी छुट्टियाँ मिलती थी न। अब रिटायर हुए हो तो ग्रेचुएटी, प्रोविडेंट फंड मिला। हर महीने पेंशन मिलती है। अब तुम दफ्तर नहीं जाते। मैं अब साठ की हो गई हूँ। इसलिए रिटायर हो रही हूँ। तुम्हें यह इतना अविश्वसनीय क्यों लग रहा है?

जब तुमने नौकरी ही नहीं की। दफ्तर ही नहीं गई, तो यह सब क्या है? कहा न तुम्हें, ‘होम केयर इंडस्ट्री’ में थी। घर की देखभाल साफ-सफाई-धुलाई। दिन भर खुली कैंटीन (किचन)। बच्चे पैदा किए, उन्हें पाला पोसा, पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया। उनकी देखभाल। तुम्हारे माँ-बाप, भाई, बहिन, रिश्तेदार, घर-बाहर के लोग सबकी देखभाल की। रिश्तेदारी को निभाया। उनके हर दुख-सुख में उनके साथ खड़ी रही। दुनियादारी निभाई। सबसे ऊपर तुम, तुम्हारी जरूरतों का, इच्छाओं का, तुम्हारी खुशी का ध्यान रखा। दुख-तकलीफ में बुरे दिनों में सब कष्ट झेले। यह सब कुछ किया। ‘यही होमकेयर इंडस्ट्री है न! अब मैं रिटायर हो गई हूँ। मुझे एक्सटेंशन नहीं चाहिए। मेरी जितनी छुट्टी है, उसे इनकैश करना चाहूंगी। महीने की पेंशन भी निर्धारित करो। इस महीने से देना शुरू करो। साथ ही घर का कोई प्रबंध कर लो। मुझसे अब घर का प्रबन्ध भी नहीं होगा।
(Story by Kamal Kumar)

घर का प्रबन्ध मतलब?
घर की जिम्मेदारी, मैंनेजमेंट यानी प्रबंधन।
तुम्हारा मतलब घर का काम?
यही समझ लो। इतनी संकुचित परिभाषा करना चाहो तो कर लो।
मतलब, तुम खाना बनाना, घर-गृहस्थी की देखभाल की जिम्मेदारी से मना कर रही हो?
जैसा समझो। देखो, मैं साठ की हो गई हूँ। मेरा अर्थराइटिस तंग करने लगा है। शरीर की शक्ति छीज रही है। आँखों में मोतिया उतर रहा है। उम्र जो हो गई है।
वह आँख फाड़कर उसकी तरफ देख रहा था।

अच्छा बताओ, तुम जबसे रिटायर हुए हो, क्या करते हो? आराम, आठ बजे  उठते हो। चाय पीते हो, अखबार पढ़ते हो, फिर नहा-धोकर नाश्ता करते हो। फिर घर के किसी काम से बैंक वगैरह जाते हो या फिर कॉफी हाउस चले जाते हो। दोपहर में लौटकर आते हो। खाना खाते हो, टी.वी. देखते हो और आराम करते हो। शाम को चाय पीकर सैर करने या दोस्तों के साथ तुम्हारी जमघट। ठीक है। जीवनभर तुमने काम किया। अब फुर्सत है, तो अपनी मर्जी से और आराम से ही जीना चाहिए। अब तुम्हारा पुराना रूटीन तो नहीं रहा। ठीक ही तो है। बस इसी तरह मुझसे अब दिनभर गृहस्थी की किचकिच नहीं होगी। दिनभर घर-गृहस्थी के सैकड़ों कामों में उलझा नहीं जा सकता। अब आप कोई दूसरी व्यवस्था कर लीजिए।

मैं? मैं क्या करूँ?
जो भी करो। मुझे क्या पता?
तो अब क्या मैं गृहस्थी चलाऊंगा!
तो क्या हुआ। न चाहो तो न चलाओ, किसी तीसरे का प्रबंध करो। काम वाली रखो।
(Story by Kamal Kumar)

कामवालियाँ क्या आसानी से मिल जाती हैं। मिसेज गुप्ता बता रही थी- बीस, पच्चीस, तीस हजार रुपए तो एजेंसी वाले ग्यारह महीनों की कमीशन लेते हैं। फिर जो ट्रेंड है, काम जानती है, वह चार से पाँच हजार रुपए महीने के। काम के नाम पर सिर्फ खाना बनाएगी और ऊपर का छोटा-मोटा काम डस्टिंग वगैरह। बर्तन, सफाई, कपड़े वह नहीं करेगी।

तो उन कामों के लिए पार्ट टाइम रख लो।
वह भी तो डेढ़-दो हजार रुपए लेगी। यह सब कैसे होगा? घर कैसे चलेगा, इतना पैसा इन कामवालियों को देंगे तो!
तुम तो कह रहे थे मैं कभी दफ्तर नहीं गई, काम नहीं किया, अवैतनिक थी? इसलिए कभी पता नहीं चला।
ऐसी बातें क्यों करने लगी हो? तुम तो मेरी पत्नी हो। तुमने जो किया पत्नी होने के नाते और माँ होने के नाते किया। पत्नी और माँ का कर्तव्य पूरा किया।

ठीक है, पर पत्नी के क्या सिर्फ कर्तव्य होते हैं? कुछ अधिकार भी तो होंगे। संवैधानिक अधिकार, सामाजिक अधिकार और स्टेटस। इसके बारे में कभी सोचा क्या? नहीं सोचा। जरूरत ही नहीं पड़ी। आँखें बंद करवा के तुमने जीवन भर अपने पीछे चलवाया। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा।
ऐसी बातें क्यों कर रही हो? पागल हो गई हो क्या?

नहीं, बिलकुल नहीं। पागलपन  तो पहले था। विवशता थी, भावनात्मक और ममता की बेड़ियों में जकड़ी थी। अब अपने दिमाग से सोच सकती हूँ। सोच रही हूँ। मेरी पेंशन का और घर के प्रबंध का कुछ कीजिए।
उसका सिर घूम रहा था। सात-आठ हजार रुपए ये कामवालियाँ लेंगी। खाना-रहना-सहना और उसका खर्चा अलग। सप्ताह में एक छुट्टी, बीमारी, कोई जरूरी काम की छुट्टी अलग। कैसे चलेगा?
मगर ये जो आप उसे देंगे, यह सिर्फ शारीरिक श्रम का देंगे। घर वालों के प्रति, घर-गृहस्थी के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं।
वह चिन्तित था। कैसे चलेगा ऐसे?
(Story by Kamal Kumar)

वह हँसी थी। कुछ देर दोनों के बीच खामोशी पसरी रही। उसने कहा था, वह सिर्फ शारीरिक श्रम है। मेरे पैंतीस साल का हिसाब लगाओ। भावनाएँ, ममत्व और कर्तव्य के भाव तो नप-तुल नहीं सकते। उसके लिए तो तुम्हें मुझे मान-सम्मान ही देना था। दिया क्या?
वह हड़बड़ाया था, मान-सम्मान…मतलब?

घर-गृहस्थी के किसी भी फैसले में मेरी राय पूछी क्या? तुमने डीडीए का फ्लैट खरीदा, किसके नाम है यह? तुम्हारे नाम? मैं नौकरी करती थी। तुमरे मेरी नौकरी छुड़ा दी। घर में तुम्हारा सहयोग चाहती थी। तुमने दिया क्या? तुमने मेरे बेटे को मुझसे अलग कर दिया। वह अपनी पसंद की लड़की से शादी करना चाहता था। तुमने जात-बिरादरी का हवाला देकर उस लड़की और बेटे का अपमान किया। जब उन्होंने कोर्ट में शादी की तो उस समय मैं जाना चाहती थी। बुलाया तो तुम्हें भी था। पर तुमने मुझे मार-धक्का कर कमरे में बंद कर दिया था। मैं उन्हें शादी का आशीर्वाद तक नहीं दे सकी थी। वे दोनों विदेश चले गए। वे यहाँ रहते तो घर, घर बना रहता। पर तुमने ऐसा नहीं होने दिया। मेरी बेटी की शादी तुमने मेरी और उसकी मर्जी के खिलाफ की। मेरी कोई बात नहीं सुनी। तुमने गाड़ी खरीदी, मैंने कहा, मुझे सिखा दो, मैं भी चलाऊंगी। तुमने मेरा मजाक बनाया। तुमने मुझे छोटा-बड़ा कभी कोई फैसला नहीं लेने दिया। मेरा इस घर में क्या रुतबा है, बता सकते हो? लेकिन अब ऐसा नहीं होगा।
(Story by Kamal Kumar)

मैंने बेटी का दाखिला इग्नू में करवा दिया है। मैं उसकी मदद करूंगी। उसके बच्चों को देखना पड़ा तो देखूंगी। कोर्स के बाद अगर वह नौकरी करना चाहेगी तो उसकी मदद करूंगी। बेटे से मेरी टेलीफोन पर बातचीत होती रहती है। उसने मेरी मजबूरी को समझ लिया है। अब वह दस साल के बाद यहाँ आ रहा है। मैंने कहा, निर्भय होकर आओ, अपनी माँ के पास आओ, तुम दोनों का घर में स्वागत है। अब तो वे तीन हैं। तुम्हें अच्छा न लगे तो कहीं चले जाना। अपने किसी रिश्तेदार के पास जा आना। मेरी बहू और बेटा आऐंगे। मेरे पास इसी घर में आएंगे। अब तक मैं तुम्हारे पीछे चलती रही आँखें बंद करके। अब नहीं चलूंगी, आँखें बंद भी नहीं करूंगी। तुमने जो दो कमरे का छोटा फ्लैट खरीदा था, सरकारी जाँच के डर से मेरे नाम कर दिया था। उस घर के किराएदार को कह दिया है कि किराए का चैक मेरे नाम से दिया करेगा।

उसके पैरों के नीचे की जमीन खिसक रही थी। वह कई दिनों से उसमें आए बदलाव को देख रहा था। पर आज यह धमाका होगा, इसकी उम्मीद उसे नहीं थी। उस दिन उसने कहा था, मैं पौधों को पानी दे रही हूँ। तुम जरा दो कप चाय बना लो। एक मुझे दे दो और एक तुम ले लेना।
नहीं आती मुझे चाय बनानी।

सीख लो। कुछ नहीं करना। पानी उबाल लो। टी बैग रखे हैं, कप में रखकर उबला पानी डाल दो। दूध और चीनी वहीं है। मेरी चाय में चीनी मत डालना।
वह कहती, अंदर आओ किचन में। खाना बन गया है। प्लेटें मेज पर लगा लो। खाना लगाओ, मैं नहा कर आती हूँ। वह बिना उसकी तरफ देखे नहाने चली गई थी। खाना खा चुके तो बोली थी, प्लीज अपनी प्लेट उठाकर सिंक में रखो। सब्जियाँ वगैरह भी किचन में रख लो, मैं संभाल लूंगी।
वह अब तक तो सब कुछ करती ही आई थी। उसके मुँह से निकला था, क्यों क्या हुआ?
(Story by Kamal Kumar)

क्या हुआ? किसे क्या हुआ? जरा थोड़ा हाथ बंटाओ। मैं थकने लगी हूँ। सब अकेले नहीं कर सकती। उसने देखा था, मेज पर खाना लगा था, दाल थी, पर सब्जी नहीं थी। उसने पूछा था, सब्जी नहीं बनाई।
उसने सुनकर भी नहीं सुना। दाल थी, दाल बना दी। कल तुम्हें कहा था, घर में सब्जी नहीं है। तुम नहीं लाए। वह उसके चेहरे की तरफ देख रहा था, निर्भाव चेहरा, उस पर एक दृढ़ता थी।

वह बोली थी, मैंने एक एनजीओ में काम करना शुरू कर दिया है। सुबह ग्यारह बजे जाऊंगी। वहाँ बच्चों को पढ़ाऊंगी और औरतों के लिए ‘अवेयरनेस’ प्रोग्राम की वर्कशाप होगी। उनके साथ काम करूंगी। दोपहर में खाना खाने के बाद सोऊंगी और शाम को सैर करने जाऊंगी। डॉक्टर ने कहा है कि सैर करना जरूरी है। सुबह तो जा नहीं सकती। अब शाम को जाया करूंगी। बीच-बीच में बेटी के पास भी जाना पड़ेगा। उसे मेरी जरूरत पड़ेगी। अब तुम सोच लो क्या करना है।
उसे अपने सिर से छत उड़ती लगी थी। सोच के क्या करूं? वह सिर पकड़कर बैठ गया था- सोच के क्या मायने? क्या करूं बताओ।

ठीक है, तानाशाही छोड़ो, मेरे सहायक बनो? मैं भी अब थकने लगी हूं। सुबह-शाम की चाय तुम बनाओगे। बाजार से दूध, सब्जी, ब्रैड वगैरा जरूरत की चीजें लाओगे। सब्जी धोकर तुम काटोगे। मेज पर प्लेट लगाओगे। सलाद की प्लेट बनाओगे। खाना खाने के बाद अपनी प्लेट उठाकर्र ंसक में रखोगे। बाकी चीजें किचन में रखोगे। यही छोटे-छोटे लगने वाले काम हैं। पर ये काम महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे करने तो पड़ेंगे न। अपनी जरूरतों के लिए मुझे आवाज नहीं लगाओगे। अपने काम खुद करोगे। अपने कपड़े वगैरह खुद सम्भालोगे। घर के छोटे-बड़े कामों में मदद करोगे। घर की देखभाल, साफ-सफाई और सभी तरह के कामों में सहयोग दोगे। अगर ये सब कर सको तब तो चल सकता है, नहीं तो नहीं। अब हम दोनों हैं। एक-दूसरे के पूरक बनकर ही रह सकते हैं। तुम तानाशाह बनकर नहीं रह सकते। यह मेरा फैसला है। सोच लो। पार्टनर बनकर रहा जा सकता है। और कोई रास्ता नहीं।
(Story by Kamal Kumar)

वह उसकी तरफ एकटक देख रहा था। मैंने तुम्हारा यह रूप तो कभी जाना ही नहीं था। इस तरह सोचा ही नहीं था।
देर हुई तो क्या, अब सोच को बदल लो।
वह उसके चेहरे के उजास की तरफ देख रहा था। उसे वह सब दिनों से अलग रहस्यमयी प्रभावशाली लग रही थी।
उसने उसे हिलाया था, चलो उठो, फिलासफी बहुत हो गई। शाम हो गई। जाओ दो कप चाय बनाओ। आज से एक नई शुरूआत करो।
वह मुस्कुराया और उठ गया था। एक हिलोर-सी ऊपर उठ रही थी। समुद्र में उठी उत्ताल लहर की तरह और फिर समुद्र में ही समा गई थी।
(Story by Kamal Kumar)

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