पचीसवाँ अंक मुबारक हो उत्तरा

दिवा भट्ट

तो हो गई ‘उत्तरा’ पच्चीस वर्ष की। सौ वर्ष आदर्श जीवनकाल का एक चतुर्थांश पूरा हुआ। सीखने-समझने और क्रियान्वयन के प्रारम्भ के लिए इतनी अवधि पर्याप्त होती है। अब इस पड़ाव पर क्षण भर ठहर कर सिंहावलोकन करते हुए स्व-मूल्यांकन और आगे की यात्रा के विषय में चिन्तन-मनन करने की आवश्यकता है।

समय के साथ बहुत-सी परिस्थितियाँ बदलती हैं, समाज बदलता है और प्रश्न भी बदलते हैं। चुनौतियों के प्रकार बदलते हैं, लेकिन चुनौतियाँ नहीं बदलतीं। एक उद्देश्य को लेकर एक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ करना अपने आप में एक चुनौती है। इसे स्वीकार करके उत्तरा ने अपनी यात्रा आरम्भ की और रास्ते में आती रही चुनौतियों का सामना करते हुए यहाँ तक पहुँची। आगे और भी नई-नई चुनौतियाँ खड़ी मिलेंगी। पच्चीस वर्ष पूर्व महिलाओं के सरोकारों को लेकर निकली उत्तरा ने महिलाओं से जुड़े लगभग सभी मुद्दों को समाज के सामने रखा और उनकी पड़ताल भी की।

स्त्री सरोकारों की शुरुआत ही स्त्री के प्रति हो रहे अन्याय, शोषण तथा सामाजिक असमानता के प्रश्नों से होती है। उत्तरा ने अब तक स्त्री के शोषण-उत्पीड़न के सभी प्रकार की घटनाओं के वास्तविक विवरण समाज के सामने रखकर उसे सोचने को प्रेरित किया है। इसके साथ-साथ वह साहसी और कर्मठ महिलाओं के पराक्रमों की कथाएँ भी सुनाती रही है, जो एक प्रेरक आदर्श प्रस्तुत करती हैं। नारी उत्पीड़न के नये-नये प्रकारों की सच्ची कहानियाँ पढ़कर पाठक चौंक उठते हैं तो शोषण-अत्याचारों से घिरकर भी हिम्मत न हारने वाली स्त्रियों की साहस कथाएँ पढ़कर पाठक अचम्भित होते हुए भी अपने भीतर एक शक्ति का संचार होते अनुभव करते हैं। नारी-उत्पीड़न न तो क्षेत्र विशेष तक सीमित है, न किसी अवस्था तक। इसका सिलसिला जन्म से पूर्व ही आरम्भ होता है और मृत्यु पर्यन्त चलता रहता है। भ्रूणहत्या; दहेज उत्पीड़न; लड़का-लड़की भेद के कारण माँ-बाप के घर में ही अन्याय; अनमेल विवाह; हत्या-आत्महत्या के लिए विवश किया जाना; घर में, कार्य स्थल पर, रास्तों में, प्रवास में, यहाँ-वहाँ सब जगह यौन शोषण का शिकार बनना; बलात्कार का दंश झेलना; मारा-पीटा, जलाया जाना; अपमानित-प्रताड़ित होना; तलाक लेने-देने के लिए मजबूर किया जाना; तेजाब से जलाये जाकर जीवन भर उसके दाग अपनी देह और चेहरे पर ढोते रहना; परित्यक्त होना; ऑनर किलिंग का ग्रास बनना; डायन कहकर प्रताड़ित किया जाना; दुल्हनों को बाजार में सजाया जाना; देह व्यापार के लिए बैठाया जाना; कुंठा, निराशा और अवसाद का भोग बनना आदि अनेक प्रकार हैं नारी-उत्पीड़न के। विधवा-परित्यक्ता, अपराधिनों, बारबालाओं, तलाकशुदा स्त्रियों की अपनी-अपनी विवशता और अपने-अपने संघर्ष हैं। इन सभी प्रकार के उत्पीड़नों की घटनाएँ जहाँ-जहाँ हुईं, उत्तरा ने उन सब स्थानों पर पहुँचकर घटनाओं का यथार्थ विवरण सबके सामने रखा।

उत्तरा केवल अन्याय-अत्याचार के नकारात्मक पक्ष को ही उजागर नहीं करती; वह अन्याय के खिलाफ लड़ने वाली क्रान्तिकारी महिलाओं की कथाएँ भी कहती है। इसके साथ ही वह समाज, संस्कृति, राजनीति, शिक्षा, अंतरिक्ष अनुसंधान, स्वाधीनता संग्राम, पत्रकारिता, समाज सेवा, आध्यात्म, चिकित्सा, विज्ञान, गणित, साहित्य, पर्वतारोहण, सेना इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली महिलाओं के व्यक्तित्वों पर भी प्रकाश डालती है। स्त्री और पुरुष के प्रति समाज के दोहरे मानदंडों और दोहरे दृष्टिकोणों के कारण दुगुने-तिगुने हो जाते स्त्रियों के कष्टों के उदाहरण देने के साथ-साथ वह हमारी सांस्कृतिक परम्परा एवं कानून में निर्धारित स्त्रियों के अधिकारों की जानकारी भी देती है तथा समुचित रीति से इन अधिकारों का निर्वाह करने हेतु पथ-प्रदर्शन भी करती है। चुनावों में महिलाओं की भूमिका, लोकतंत्र में नारी के अधिकार, महिला पंचायत, महिला मंगलदल, महिला परिषद, महिला संगठन इत्यादि की समग्र जानकारी देने के साथ वह इन क्षेत्रों में नारी की चुनौतियों के प्रति भी सचेत करती है। महिला आरक्षण, यौनशुचिता, स्त्रियों के नाम और पहचान, मानवाधिकार, महिला सशक्तीकरण, महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता, समानता का अधिकार, सौन्दर्य प्रतियोगिता, घर में तथा बाहर महिलाओं की निर्णायक भूमिका, बदलते परिवेश में नारी की चुनौतियाँ जैसे विषयों पर बहसें चलाती है और दिशा-निर्देश देती है। स्वास्थ्य, प्रजनन, रोजगार, विधवा पेंशन, सम्पत्ति का अधिकार, समान नागरिक अधिकार, कानून और पुलिस, महिला आयोग, महिला दिवस जैसे विषयों पर जानकारियाँ उपलब्ध कराती है और नारी अस्मिता की दृष्टि से स्त्रियों को जागरूक करती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, लोकभाषा, लोक संस्कृति, परिवार कल्याण, बालकों के पालन-पोषण, पारिवारिक दायित्व, अर्थोपार्जन तथा नियोजन आदि में महिलाओं की भूमिका के विवरण देने के साथ ही उचित सुझाव भी देती है।
(25th issue of uttara)

उत्तरा ने स्थानीय से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक के महिला आन्दोलनों की चर्चा करके महिलाओं का उत्साह बढ़ाया है। उत्तराखण्ड में नशामुक्ति आन्दोलन, वन बचाओ आन्दोलन, भू-माफिया, शराब माफिया, वन माफियाओं के विरुद्ध आन्दोलन, दहेज, बलात्कार, स्त्री-हत्या इत्यादि के विरुद्ध आन्दोलन, उत्तराखण्ड राज्य निर्माण आन्दोलन तथा राजधानी आन्दोलन आदि में पत्रिका से जुड़ी अनेक महिलाएँ सम्मिलित रहीं और इन सब आन्दोलनों की रपटें पत्रिका में आती रहीं। इसके साथ ही विश्व के विभिन्न देशों में सफलतापूर्वक चलाये जा रहे महिला आन्दोलनों, महिला सम्मेलनों एवं अन्य प्रेरक कार्यक्रमों के विवरण भी इसमें आते रहे, जिसमें बीजिंग एवं अमेरिका के अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलनों के विवरण सम्मिलित हैं। उत्तरा की लेखिकाओं ने गौरादेवी, गंगोत्री गर्ब्याल, विमला बहुगुणा, विद्यावती डोभाल और राधा भट्ट जैसी प्रेरक और क्रान्तिकारी महिलाओं के संस्मरण एवं साक्षात्कार सबके सामने रखे। अपने-अपने क्षेत्रों में शिखर पर पहुँची महिलाओं के अनुभवों को सबके साथ साझा करते हुए उत्तरा ने दूसरी अनेक महिलाओं को प्रोत्साहित तथा पथ प्रदर्शित किया और शोषित-पीड़ित महिलाओं की पीठ पर हाथ रखकर अत्याचार के विरुद्ध डटकर खड़े होने के लिए उनका मनोबल बढ़ाया। कभी वह सपने देखने की बात करती है, कभी उन्हें साकार करने की और कभी उनके टूटने की कथा-व्यथा भी सुनाती है।

सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन की दिशा एवं सांस्कृतिक संरक्षण में महिलाओं की भूमिका को निर्णायक मानते हुए उत्तरा उन्हें धर्मान्धता और अपसंस्कृति की आँधी दोनों के प्रति सचेत करती है। देश की आजादी के पचास वर्ष पूरे होने पर वह देश के साथ-साथ स्त्रियों की दशा-परिवर्तन का भी मूल्यांकन करती है। कभी भारतीय और पश्चिमी, कभी घरेलू और कामकाजी तथा कभी ग्रामीण और शहरी स्त्रियों की स्थितियों एवं भूमिकाओं का तुलनात्मक विश्लेषण करके वह उनकी स्थितियों का मूल्यांकन करती है।

यह सब उत्तरा में भिन्न-भिन्न विधाओं के रूप में सामने आता है, इसलिए उसमें कभी नीरसता या एकरसता का अनुभव नहीं होता। उक्त सभी बातें रिपोर्ट, फीचर, निबन्ध, डायरी, पत्र, साक्षात्कार, वृतान्त, कहानी, लघुकथा, गीत-कविता और कभी-कभी उपन्यास अंश के रूप में प्रस्तुत होती हैं। इसी प्रकार इसके रचनाकार भी सभी प्रकार के व्यक्ति हैं। कुछ प्रतिष्ठित लेखक; तो कुछ नौसिखिये भी हैं। कुछ वरिष्ठ रचनाकार तो कुछ छात्राएँ और गृहणियाँ उत्तरा के लिए ही अपना लेखन आरम्भ करती हैं। सौभाग्यवती, गंगोत्री गर्ब्याल, इन्दु बहुगुणा, जया पाण्डे, कमल नेगी, उर्मि कृष्ण और गीता गैरोला जैसी लगभग नियमित लिखने वाली लेखिकाएँ भी हैं और बहुत-सी लेखिकाएँ केवल एक रचना तक ही भी सीमित रहीं। महिला पत्रिका होने के नाते इसके सम्पादक मंडल और रचनाकारों में महिलाओं का प्रभुत्व होते हुए भी पुरुष रचनाकारों की भागीदारी भी कम नहीं है। कमल जोशी, प्रभात उप्रेती, नन्दकिशोर हटवाल, यशोधर मठपाल जैसे बहुत-से लेखक इससे नियमित रूप से जुड़े रहे हैं।

दस वर्ष पूरे होने पर हिन्दी की प्रसिद्ध कवयित्री तथा स्त्री-विमर्श पर गंभीर वैचारिक गद्य रचनाएँ देने वाली महादेवी वर्मा की सृजनस्थली रामगढ़ में उत्तरा ने उत्तरा परिवार से जुड़े रचनाकारों का एक यादगार सम्मेलन आयोजित किया था। इसमें महिला-सरोकारों के विभिन्न बिन्दुओं पर विचारोत्तेजक तथा उत्साहपूर्ण चर्चा-परिचर्चा के साथ कई रचनाओं का पाठ भी हुआ था। ‘विरासतों के साये से निकलकर’ जैसे सशक्त संकलन का प्रकाशन इस सम्मेलन की एक उपलब्धि थी।

अब तो ढाई दशक पूरे हो गये! अब एक बार पुन: चिन्तन करना आवश्यक हो गया है। आज देश में और विश्व में स्त्री-विमर्श को लेकर बीसियों पत्रिकाएँ निकल रही हैं, सैकड़ों पुस्तकें तथा शोधपत्र प्रकाशित हो रहे हैं, हजारों सेमिनार-कार्यशालाएँ हो रही हैं। अनेक संस्थाएँ स्त्री सरोकारों पर कार्य कर रही है। महिलाओं के नाम पर योजनाओं-परियोजनाओं और घोषणाओं की बाढ़ लगी हुई है और इसी के साथ-साथ स्त्री-उत्पीड़न और महिला-असुरक्षा का वातावरण भी उतना ही बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय में उत्तरा अपनी सार्थकता को कैसे और कितना सिद्ध कर पा रही है? ऐसे समय में एक विचारशील गंभीर पत्रिका की क्या भूमिका हो सकती है? विचार तथा यथार्थ-कथन केवल कहने-सुनने/पढ़ने तक ही सीमित है या जड़ों तक पहुँचकर परिवर्तन भी ला पा रहे हैं? जिन्हें अपनी दृष्टि और व्यवहार बदलना है तथा जिन्हें अपना मनोबल बढ़ाकर प्रतिकार करना है; क्या उन तक ये छपे हुए शब्द पहुँच पा रहे हैं?

पच्चीस वर्षों में बहुत-सी चीजें बदल भी गई हैं। इसलिए प्रौढ़ अनुभवी हाथों के साथ युवा ऊर्जावान हाथों का जुड़ना जरूरी है। प्रथम पीढ़ी की दृष्टि के साथ नये दृष्टिकोण से भी चीजों को देखना-परखना आवश्यक है। उत्तरा को करवट बदलकर अपने भीतर नयी ऊर्जा का संचार भी करना होगा।
(25th issue of uttara)
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