कुमाऊं की ‘बौ’ गायन परम्परा-संस्कृति

कृष्णचन्द्र मिश्रा

लोकगीत किसी भी लोक परम्परा के प्राण होते हैं, प्रत्येक लोक परम्परा की जीवनदायिनी गंगा लोकगीतों में प्रवाहित होती है। लोक परम्पराओं, लोक मान्यताओं, लोक विश्वासों और लोक जीवन का प्रवाहमान चित्र हैं- लोकगीत। वैसे तो कुमाऊँ अंचल में झोड़ा, चाँचरी, न्यौली, बैर, फाग, बालगीत, होली, छपेली आदि लोकगीतों की अनेक विधाओं का प्रचलन है, किन्तु ये सभी विधाएँ लोक-मंगल का विधान करते हुए भी स्त्री को सीमित स्थान ही प्रदान करती हैं। जबकि कुमाउँनी लोकगीतों की एक विधा ऐसी भी है जो केवल स्त्रियों के द्वारा स्त्रियों के लिए गायी जाती है। अर्थात् जिस पर स्त्रियों का एकाधिकार है। उस गायन परम्परा का नाम है, ‘बौ’।

‘बौ’ गायन का समय भी तय होता है और महीना भी। ‘बौ’ वे गीत हैं जो परिवार की बहू/भाभी को आधार बनाकर ननदों द्वारा गाये जाते हैं। या गाँव की बहू-बेटियों द्वारा गाँव की ही बहुओं/ भाभियों के लिए गाये जाते हैं। ‘बौ’ का गायन पूस के महीने 15 गते से आरम्भ होता है और यह मास पर्यन्त चलता रहता है। पूस से एक माह पहले आता है मार्गशीर्ष (मंगसीर का महीना) जिसमें सल्ट क्षेत्र में व्यापक रूप से विवाह होते हैं। पूस के महीने को इस क्षेत्र में काला महीना माना जाता है जिसके कारण पूरे पूस माह में किसी भी नव-विवाहिता को मायके न भेजे जाने की परम्परा है। नवविवाहिता को बड़ी बेसब्री से माघ के महीने (उत्तरायणी) का इंतजार रहता है कि कब उत्तरायणी आयेगी और कब मैं मायके जाऊंगी। ऐसी स्थिति में अपने मायके की याद, नवविवाह के सपने और ससुराल का नया परिवेश कहीं उसको अन्तर्मुखी न बना दे इसलिए उसकी ननदें अपनी भाभी को बार-बार याद दिलाती हैं कि- ”भाभी! अब उठ जाओ, विचारों में खोई मत रहो।” उत्तरायणी की पहली शाम को ही इन गीतों का समापन होता है। ‘बौ’ एक सामूहिक महिला गीत है जिसका मुख्य विषय भी महिला ही होती है। अर्थात् ‘बौ’ महिलाओं द्वारा महिलाओं के लिए गाये जाने वाला गीत है। ‘बौ’ शब्द का अर्थ होता है ‘भाभी’। बौ शब्द कुमाउँनी और गढ़वाली के सांस्कृतिक मेल वाले स्थानों (दुसांद) में प्रचलित है। बौ का अधिकांशत: गायन दुसांद के गाँवों में ही होता है। ‘बौ’ गायन बदनगड़ा नदी और रामगंगा के मध्यवर्ती क्षेत्र में होता है, जो कि भिकियासैण से मरचूला और देघाट से भीताकोट तक फैला हुआ है। विकासखण्ड (सल्ट) का यह क्षेत्र प्राचीनकाल से ही कुमाउँनी-गढ़वाली भाषा व संस्कृति का संगम स्थल रहा है। आज भी इस क्षेत्र के गाँवों में ‘बौ’ की धुनें सुनने को मिलती हैं, लेकिन यदा-कदा, पहले की तरह हर साल नहीं।

दोपहर के बाद सायंकाल के समय गाँव की बहू-बेटियाँ जब घास काटने जाती हैं तो गाँव के सामने या आस-पास वाली पहाड़ी पर गाँव की ओर मुँह करके बैठकर सामूहिक रूप से ‘बौ’ गाती हैं। ताकि उन गीतों की लय गाँववासियों को मोहित कर सके और उनके गीतों का उलाहना गाँव की बहुओं/भाभियों को प्रभावित कर सके। हरी-भरी घास से ढकी स्यारी के बीच बगल में टोकरी (डलिया) रखकर कतार से बैठी घस्यारिनें जिस वक्त ‘बौ’ गायन करती हैं, यों लगता है कि आकाश की परियाँ धरती पर उतर आयी हों। हों भी क्यों नहीं,’बौ’ गीतों में है ही इतनी मधुरता। ‘बौ’ गायन के सन्दर्भ में एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि कुमाउँनी लोकगीतों की अनेक विधाओं के समान ‘बौ’ का निर्माण भी जोड़ों के माध्यम से होता है। जिस गायिका में जोड़ मारने या पट लगाने की क्षमता जितनी अधिक होगी, वह उतनी ही कुशल ‘बौ’ गायक मानी जाएगी। जोड़ की प्रथम पंक्ति के अन्तिम शब्द को गायन के वक्त खींचा जाता है या अधिक समय दिया जाता है, यही स्थिति तीसरी पंक्ति के अन्तिम शब्द ‘बौये’ के साथ भी घटित होती है। बौ की अन्तिम पंक्ति में आने वाले शब्दों का अर्थ इस प्रकार निकलता है कि भाभी अब उठ जाओ।
(Sanskriti by krishnachandra mishra)

‘बौ’ गीतों के विषय पहाड़ी स्त्री के प्रेम-विरह, दुख-सुख, भाव-अभाव रहे हैं। पहाड़ी जीवन में पूस वह महीना है जो न केवल ठण्ड की पराकाष्ठा लेकर आता है, वरन इस महीने में घास से लेकर लकड़ी तक का अभाव भी पड़ जाता है। ऐसे अभावपूर्ण जीवन में भी उमंग के साथ गायन की परम्परा का कहीं न कहीं पहाड़ी जीवन और विशेषकर पहाड़ी स्त्री के कठिनतम जीवन से संयोग बैठता है, जो पीड़ा में भी मुस्कुराती है। ना केवल मुस्कुराती है वरन् गाने का सामर्थ्य भी रखती है।

गाड़ काटो स्यौना ऽऽऽऽ
चतुरी चौमासा लै गो मेरी बौ
पै मायादारा ह्योना बौ ये ऽऽऽ
उठी जा बौ ऽऽऽऽ

गधेरे में काटा स्यौन1। चतुर चौमास लग चुका है भाभी, फिर भी मायादार तो शीतकाल ही हुआ। भाभी अब उठ जाओ।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
नानवा घुरूवा ऽऽऽ
सेती ग्योंकि रोटि खालि मेरी बौ
पै माछी को शुरूवा बौये ऽऽऽ

छोटा शिशु गहन निद्रा में सो रहा है। गेहूँ की सफेद रोटी खाओगी मेरी भाभी और मछली का शोरबा।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
दै भलौ गाइया ऽऽऽऽ
यूँ आँखि मैं खैंला मेरी बौ
पै सुरमा डाइया बौये ऽऽऽऽ

दही अच्छी गाय के दूध का। ये सुरमा लगाई हुई आँखें तुम्हारी मुझे जान से प्यारी।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
खमरै की पाई ऽऽऽऽ
किल्मोड़ि झन खये मेरी बौ
पै गिचि हैली काई बौये
(Sanskriti by krishnachandra mishra)

खमर2 की पाई। किलमोड़ी मत खाना भाभी, आपके होंठ काले हो जायेंगे।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
ग्योनों घालौ कुला ऽऽऽऽ
रूपसी मुखड़ी हुणी मेरी बौ
पै पिठ्या ल्याणौ भुल ऽऽऽऽ बौ ये

गेहूँ के खेत में पानी की गूल छोड़ी। तुम्हारी रूपसी मुखड़ी के लिए मैं पिठाईं लाना भी भूल गई।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
छिनानी चिचन ऽऽऽऽ
त्यरा गौं बै नसी जानू मेरी बौ
पै रहे निचन बौये ऽऽऽऽ

चिचिण्डे का काटना। तेरे गाँव से चली जाती हूँ भाभी। अपने ससुराल में तू निश्चिन्त रहना।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
घिनोड़िया बीट ऽऽऽऽ
छत मा बैठाक लैरो मेरी बौ
पै बंगलाम दीठ बौये ऽऽऽऽ

घिनोड़ी पक्षी की बीट। छत में बैठक लगी हुई है किन्तु नजर बंगले पर ही है।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
भोटुका बटना ऽऽऽऽ
छोड़ि द्यूलो घर कुड़ी मेरी बौ
पै निछोडूं रटना बौये ऽऽऽऽ
(Sanskriti by krishnachandra mishra)

वास्कट के बटन। छोड़ दूंगी घर-बार लेकिन तेरी रटन नहीं छोड़ पाऊंगी।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
घा काटो पऊँ ऽऽऽऽ
मिजातू मा टूटी रैछै मेरि बौ
ग्यूं कसी नऊ बौये ऽऽऽऽ

कोमल नव अंकुरित घास काटी। तुम श्रृंगार करके ऐसी लग रही हो, जैसे गेहूँ की पकी बाल झुक रही हो। 

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
नाक में फूली ऽऽऽऽ
ते हैबेरा भलि देखी मेरि बौ
तेरी नानि भूलि बौये ऽऽऽऽ

नाक की फूली। तुमसे अच्छी दिखती है मेरी भाभी, तुम्हारी छोटी बहिन।

उठी जा बौ ऽऽऽऽ
गौहता गोडूला ऽऽऽऽ
मेरि सेवा लगै दिए मेरी बौ
पै मैं हाता जोडूंला बौये ऽऽऽऽ

गहत गोड़ूंगी। मेरी सेवा लगा देना मेरी भाभी, मैं हाथ जोड़ूंगी।

1.   कैक्टस की प्रजाति का एक पेड़ 2. एक वृक्ष जिसकी लकड़ी से बर्तन बनाये जाते हैं।
(Sanskriti by krishnachandra mishra)

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