मैं उत्तरा क्यों पढ़ती हूँ

गीता चमोली

बात 1994 की है, उत्तराखण्ड आन्दोलन अपने चरम पर था। हम लोग तब देहरादून की यमुना कॉलोनी में रहा करते थे। एक दिन हम अपने किसी रिश्तेदार के घर गये थे, वहां ‘उत्तरा’का अंक देखने को मिला। ‘उत्तरा’के बारे में पूछने पर रिश्तेदार ने बताया कि उनको भी उनके ऑफिस के किसी मित्र ने यह अंक पढ़ने को दिया था। उन्होंने आगे ‘उत्तरा’के बारे में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई, परन्तु मैंने दो घण्टे में वह सारा अंक पढ़ लिया। तब से महिला केन्द्रित साहित्य से भरपूर इस पत्रिका के प्रति मेरा आकर्षण बना रहा। वर्ष 1995 में हमारा स्थानान्तरण देहरादून से नैनीताल हो गया। सौभाग्य से उमा दीदी के पड़ोस में ही हमें किराये का मकान मिल गया था। फिर क्या था, मैने सर्वप्रथम उमा दीदी से मिलकर ‘उत्तरा’की आजीवन सदस्यता ग्रहण की।

वर्ष 1995 तक उत्तराखण्ड आन्दोलन अपने चरम पर जाने के बाद परिपक्व हो गया था। आन्दोलन पर बहस और परिचर्चाओं का दौर जारी था। चूंकि इस आन्दोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था इसलिये ‘उत्तरा’का सदस्य बनने के उपरान्त मेरे हाथ में ‘उत्तरा’का जो पहला अंक मिला, वह उत्तराखण्ड आन्दोलन पर ही निकाला था। इस अंक के सम्पादकीय में ही उल्लेख था कि सामाजिक विषमता, अन्याय, कुप्रवृत्तियों, सामाजिक कुरीतियों, सरकारी भ्रष्टाचार, सामाजिक अपराध अथवा सरकारी दमन का खामियाजा अन्तत: महिलाओं को हो क्यों भुगतना पड़ता है और आखिर वह आगे कब तक इन पीड़ाओं को झेलती रहेंगी। उत्तराखण्ड आन्दोलन के जरिए महिलाओं ने अपनी इस लड़ाई की शुरूआत कर दी है। इसी अंक में प्रो. शेखर पाठक, चण्डी प्रसाद भट्ट और रमेश पाहड़ी ने उत्तराखण्ड आन्दोलन की जरूरत और उसके निहितार्थ जो शोधपरक लेख प्रकाशित किए गये थे, उन्होंने उत्तराखण्ड आन्दोलन के बारे में उपजे सारे संशय मिटा दिए थे। तब से मैं ‘उत्तरा’की नियमित पाठक हूँ और ‘उत्तरा’के साथ पठन-पाठन का जो रिश्ता तब कायम हुआ था, वह आज भी बना हुआ है।

मैं ‘उत्तरा’को क्यों पढ़ती हूँ अथवा ‘उत्तरा’से मेरा क्यों लगाव हो गया, उसका कारण यह है कि नब्बे के दशक की सोवियत विहीन, एक ध्रुवीय होती दुनिया में जब पूंजीवाद और साम्प्रदायिकता के नाखून लगातार लम्बे और तीखे होते जा रहे थे तो ‘उत्तरा’ने स्त्री-विमर्श को आधार बनाकर जनवादी शक्तियों के सहारे एक युद्ध लड़ने की तैयारी कर ली थी और ऐसा युद्ध जो आज भी नारी उत्पीड़न, सामाजिक कुरीतियों, भ्रष्टाचार एवं सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध अविरल गति से लड़ा जा रहा है। ‘उत्तरा’को पढ़ने से आनंद की अनुभूति होती है, क्योंकि ‘उत्तरा’हमारे समाज, धर्म, संस्कृति, परम्पराओं और रीति-रिवाजों में घुले अन्याय को देखने-समझने की दृष्टि पैदा करती है। ऐसी दृष्टि मुझमें पैदा हुई कि नहीं, कहना कठिन है परन्तु ‘उत्तरा’के सम्पर्क में आने से न्याय के लिए समर्पित संघर्षों व संघर्षशील ताकतों के प्रति अपनेपन का स्थायी भाव जरूर पैदा हो गया। यही अपनापन ‘उत्तरा’से लगाव की वजह बन गया है, जो मुझे आदमियों की भीड़ में खोये रहने के बजाय उसमें मनुष्यों की तलाश करते रहने की प्रेरणा देता है।

‘उत्तरा’के बारे में विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि महिला मुद्दों पर अपनी आवाज मुखर रखने के साथ ही जब भी जरूरत हुई ‘उत्तरा’की टीम सड़कों पर भी उतरी और ज्वलन्त सामाजिक मुद्दों के निस्तारण के लिए व्यवस्था के पोषकों से भिड़ती रही। महिला समस्याओं पर गम्भीर लेख प्रस्तुत करने के साथ ही कहानियों, यात्रा संस्मरणों, कविताओं, लघु कहानियों, लोक-संस्कृति और लोकगीतों के माध्यम से भी ‘उत्तरा’ने जन-जागरण व स्त्री-विमर्श को आगे बढ़ाने का कार्य किया। यही कारण है कि ‘उत्तरा’के पाठक वर्ग में मुझ जैसे अनेक लोगों का जुड़ाव हुआ और इस तरह समाज के हर वर्ग में समान रूप से ‘उत्तरा’ने लोकप्रियता हासिल की।
Why do I read Uttara?

‘उत्तरा’समकालीन घटनाओं का भी सजीव चित्रण करती है और घटनाओं पर पैनी निगाह रखते हुए सरकारी दृष्टिकोण का भी मूल्यांकन करती है। इस सम्बन्ध में चाहे उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों पर सरकार की बर्बरता का मामला रहा हो या वर्ष 2012 का निर्भया काण्ड, चाहे उत्तराखण्ड में जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई रही हो या नोटबन्दी का मामला हो अथवा गतवर्ष का शाहीनबाग आन्दोलन रहा हो ‘उत्तरा’ने इन सभी मामलों पर अपनी बेबाक व तथ्यपरक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी और इन घटनाओं पर सरकार की जनविरोधी नीतियों की तीखी आलोचना करने से भी नहीं चूकी।

‘उत्तरा’की भूमिका आगे क्या रहने वाली है, यह तो ‘उत्तरा’का विद्वान सम्पादक मण्डल निर्णय करने में भली-भांति सक्षम है, परन्तु ‘उत्तरा’के सभी पाठक इस बात से भिज्ञ हैं कि समाज में व्यथित और उद्वेलित करने वाली परिस्थितियां आज भी समान रूप से मौजूद हैं। ‘उत्तरा’ की तीस वर्षों की यात्रा इस बात की गवाह है कि उसके पास कोई आर्थिक संबल नहीं होने के बावजूद भी वह नियमित रूप से प्रकाशित होती रही हैं और महिला जनान्दोलनों के पक्ष में निरंतर खड़ी रहकर सामाजिक परिवर्तनों की साक्षी बनी हुई हैं। ‘उत्तरा’की मशाल ही अन्धेरा चीरेगी और समाज को निराशा के भंवर से बाहर निकालेगी, यह हम सब की पक्की उम्मीद है।
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