हिन्दू कोड बिल : एक मुट्ठी आसमान की तलाश

जया पाण्डे

जिस समय भारत आजाद हुआ, हिन्दू समाज में पुरुषों और महिलाओं को तलाक लेने का अधिकार नहीं था। पुरुषों को एक से अधिक विवाह करने का अधिकार नहीं था। विधवाओं को दोबारा विवाह करने का अधिकार नहीं था। विधवाओं को सम्पत्ति का अधिकार नहीं था। अन्तर्जातीय विवाह को वैधता नहीं थी। स्वतंत्रता प्राप्त करने से पहले महिलाओं के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने का काम तो शुरू को चुका था, परन्तु अभी भी हक-हकूक दिलवाने बाकी थे। औपनिवेशिक काल में ही सती उन्मूलन (1929) कानून तथा सम्पत्ति अधिकार अधिनियम (1937) पास हो जाने से यह तो स्पष्ट हो गया था कि कानून के जरिये महिला अधिकारों की दिशा में काम हो सकता है। इस समाज में महिलाओं के प्रति इतने भेदभाव हैं कि महिलाओं को सरकार से नहीं, वरन समाज से अपनी लड़ाई लड़नी पड़ती है। समाज से अधिकार पाने के लिए सरकार से सहायता ली जाती है। सरकारी कानून के जरिये व्यवस्था में परिवर्तन लाने की कोशिश चलती रहती है। हिन्दू कोड बिल भी इसी दिशा में एक प्रयास था। आजादी से पहले भी हिन्दू समुदाय की मांग पर अंग्रेजों के द्वारा हिन्दुओं के कानूनों को संहिताबद्घ करने का प्रयास किया गया था। 1941 में वी़ एऩ राव की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। इस समिति ने पूरे राष्ट्र का भ्रमण किया और हिन्दू समाज के विभिन वर्गों के लोगों से उनके विचार भी लिए। इस मसविदे के मुख्य प्रावधान थे- बेटे और बेटियों का माता-पिता की सम्पत्ति पर अधिकार, एकल विवाह को मान्यता और बुरे हाल में तलाक की व्यवस्था। 1 अप्रैल 1947 को इस बिल को विधायिका के सामने पेश किया गया लेकिन राजनीतिक हालात के चलते इस विषय पर कोई चर्चा नहीं हो पाई।

आजादी के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने फ्रांसीसी विचारक मार्ले के सामने यह स्वीकार किया था कि उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है, एक धार्मिक राष्ट्र में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना। हमें आजादी ही एक अस्थिर और अराजक समाज में मिली थी, धार्मिक दंगे थे। नेहरू और तत्कालीन कानन मंत्री डा. अम्बेडकर के प्रयास से यह अनुच्छेद  संविधान के नीति निर्देशक तत्व में जोड़ा गया था कि राज्य भारत के भू-भाग में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करेगा। (अनुच्छेद 44) अम्बेडकर धर्म के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप से बहुत दुखी थे। उनका कहना था,

”मैं निजी तौर पर यह समझ नहीं पाता कि धर्म को इतना व्यापक और सर्वसमावेशी अधिकार क्यों दिया जाता है कि पूरा जीवन उसके खोल में आ जाता है और यहां तक कि विधायिका भी उस दायरे में घुसपैठ नहीं कर सकती। आखिरकार हमें मुक्ति मिली ही इसलिए है कि हम अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधार सकें जो कि गैर बराबरी, भेदभाव और दूसरी चीजों से भरी पड़ी है और ये सारी प्रवृत्तियां हमारे मौलिक अधिकारों के विरुद्घ हैं।”

अम्बेडकर और नेहरू दोनों आधुनिक थे। दोनों की शिक्षा-दीक्षा पश्चिमी देशों में हुई थी। हिन्दू कोड बिल पास करवाना दोनों के लिए एक चुनौती था। 1948 में नेहरू ने हिन्दू कोड बिल पास करवाने के लिए एक उपसमिति बनाई, जिसका मुखिया कानून मंत्री अम्बेडकर को बनाया गया। अम्बेडकर ने माना कि हिन्दू कोड बिल देश की एकरूपता की दृष्टि से लाभकारी है क्योंकि हिन्दुओं का सामाजिक और धार्मिक जीवन एक ही कानून से शासित होना चाहिए। ये कानून बिना क्षेत्रीय अवरोध के सारे समाज में लागू होने चाहिए। अम्बेडकर का उद्देश्य, हाईकोर्ट तथा प्रिवी काउन्सिल के यत्र-तत्र बिखरे निर्णयों को एक साथ सम्बद्घ कर एक संहिता बनाना था।
(hindu code bill)

यह प्रश्न उस समय भी बार-बार उठ रहा था और आज भी जारी है कि क्यों सिर्फ हिन्दू कोड बिल, समान आचार संहिता क्यों नहीं? हिन्दू कोड बिल में मुस्लिम और ईसाई समाज को छोड़कर सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्घ, सिक्ख सभी को शामिल किया गया था। समान आचार संहिता के लिए मुसलमान तैयार नहीं थे। मुस्लिमों का तर्क था कि तलाक, विवाह तथा सम्पत्ति के अधिकार उनके धर्म में पहले से शामिल हैं और वे उसमें परिर्वतन नहीं चाहते। तत्कालीन नेताओं ने मुस्लिम समुदाय से उलझने से बचना चाहा, क्योंकि हालात खराब थे। विभाजन का दौर था, मुसलमान अल्पसंख्यक थे। मुस्लिम परिवार बिखरे थे। हिन्दू अधिक संख्या में थे, शिक्षित थे। उनमें आधुनिकता का संचार हो चुका था नेतृत्वकारी पीढ़ी होने के कारण वे प्रगतिशील हो चुके थे। इसलिए समान आचार संहिता न बनाकर पहले हिन्दू कोड बिल बनाना जरूरी समझा गया। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि ईसाई और मुस्लिम धर्म के अपने पर्सनल लॉ थे, जो हिन्दू धर्म में अब तक नहीं थे। हिन्दू महिलाओं के पास तलाक का अधिकार नहीं था।

इस कानून के माध्यम से हिन्दू धर्म की मान्यता में बदलाव लाना भी था। तलाक तथा विवाह सम्बन्धी अन्य सुधार लाकर इस विचार में बदलाव लाना था कि विवाह जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध है और पति परमेश्वर है। इसके विपरीत अन्य समुदायों की व्यवस्था में विवाह एक समझौते पर आधारित संस्था थी। यही कारण है कि हिन्दू स्त्री कई बार अत्याचारी पति के साथ पूरा जीवन बिता देती थी और विरोध करने का साहस नहीं कर पाती थी। धर्म के अन्दर कोई संहिता न होने से हिन्दू महिला कोई कदम नहीं उठा पाती थी। अत: तलाक की व्यवस्था कर विवाह को समझौते पर आधारित संस्था बनाना था। अभी तक हिन्दुओं में पति द्घारा पत्नी को छोड़ दिए जाने को तलाक मान लिया जाता था। विरोध करने पर महिला को अपराध-बोध होता था। जब हम विवाह संस्था को समझौते पर आधारित संस्था मानते हैं तब हम बराबरी पर आ जाते हैं। बराबरी के लिए बदलाव जरूरी हो गया था।

इसलिए 1948 में हिन्दू कोड बिल बनाने के लिए कानून मंत्री डॉ़ बी़ आऱ अम्बेडकर की अध्यक्षता में पुन: एक समिति बनाई गई। अम्बेडकर ने पूर्व में वी़ एऩ राव की अध्यक्षता में बने ड्राफ्ट का मूल्यांकन किया और एक बिल बनाया, जिसके मुख्य बिन्दु थे-

  • हिन्दू विधवाओं और लड़कियों की पिता की सम्पत्ति में पुत्र के बराबर की हिस्सेदारी।
  • हिन्दू पुरुष द्वारा उपस्त्री रखने या पत्नी के प्रति क्रूर व्यवहार रखने या पुरुष के किसी बीभत्स बीमारी से ग्रसित होने की हालत में पत्नी को अलग होने और गुजारा भत्ता मिलने का अधिकार।
  • विवाह संबंधों में किसी भी प्रकार के जातीय भेदभाव को खत्म करना।
  • अमानवीय व्यवहार, विवाहेतर सम्बन्ध होने, न ठीक होने वाली बीमारी के हालात में पति-पत्नी दोनों को तलाक मिलने का अधिकार।
  • सिर्फ एक जीवन-साथी रखने की बाध्यता।
  • किसी अन्य जाति के बच्चे को गोद लेने का अधिकार।
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यह हिन्दू जीवन पद्धति में बडे़ बदलाव का संकेत था। हिन्दू कोड बिल पास हो जाने पर विधवा या बेटी को लड़के के समान ही सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा मिलता जो पहले सिर्फ लड़के को ही मिलता था। दुखी पत्नियां कानून का सहारा लेकर अत्याचारी पति से पिण्ड छुड़ा सकती थीं। अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता मिल जाती। उनसे उत्पन्न संतान पैतृक सम्पत्ति में बराबर की हकदार मानी जाती। अम्बेडकर इसको लेकर काफी सुरक्षात्मक थे। उन्होंने प्राचीन शास्त्रों का हवाला देकर बताया कि हिन्दू शास्त्र पतियों को असीमित अधिकार नहीं देते। मिताक्षरा और दाय भाग का हवाला देकर बताया कि पिता की सम्पत्ति में एक चौथाई हिस्सा तो लड़कियों को दिया ही जाता है। उन्होंने उसे बराबर करने का प्रयास किया है। यह सुधार एक ऐसे समाज के लिए क्रान्तिकारी होते, जहां लड़की की अपेक्षा लड़के को वरीयता दी जाती थी, जहां विवाह को पवित्र सम्बन्ध माना जाता था, जहां विवाह जाति के आधार पर तय होते  हैं।

इस बिल को 9 अप्रैल 1948 को सलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया। बाद में 1951 में अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल को संसद में पेश किया। इसे लेकर संसद के अन्दर और बाहर घमासान मच गया। उस समय संविधान भी बनकर तैयार था लेकिन संसद के सदस्यों को जनता ने नहीं चुना था। संसद में तीन दिन तक बहस चली। कांग्रेस के अन्दर इसके प्रमुख विरोधी डा. राजेन्द्र प्रसाद स्वयं थे।

राजेन्द्र प्रसाद ने इसे ऐसी परियोजना बताया जिसके प्रावधान न केवल हिन्दुओं के लिए पराये हैं बल्कि प्रत्येक परिवार को तोड़ने वाले हैं। पार्टी अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया सहित कांग्रेस के बहुत सारे नेताओं ने विधेयक का विरोध किया और यह आशंका व्यक्त की कि यह कानून 1951-52 के आम चुनाव से पहले रूढ़िवादी जमींदारों को पार्टी से दूर कर देगा। राजेन्द्र प्रसाद व्यक्तिगत तौर पर इसके खिलाफ अभियान चलाते रहे। उनका कहना था कि अन्तरिम संसद के पास ऐसे मुद्दों पर विचार के लिए जनादेश नहीं है। संसद में यदि यह पास भी हो जाता है तो भी इस पर अपनी सहमति देने से पहले पुनर्विचार के लिए कहेंगे। संसद के सदस्य जनता द्वारा चुने गए नहीं हैं, इसलिए उतने बडे़ विधेयक को पास करने का नैतिक आधार उनके पास नहीं है।

संसद के बाहर हरिहरानन्द सरस्वती उर्फ करपात्री महाराज के नेतृत्व में बड़ा प्रदर्शन शुरू हो गया। अखिल भारतीय राम राज्य परिषद् की स्थापना करने वाले करपात्री का कहना था कि यह बिल हिन्दू धर्म में हस्तक्षेप है। यह बिल हिन्दू रीति-रिवाजों, परम्पराओं और धर्मशास्त्रों के विरुद्घ है। करपात्री महाराज के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिन्दू महासभा और दूसरे हिन्दुत्ववादी संगठन भी हिन्दू कोड बिल का विरोध कर रहे थे। इसीलिए जब इस बिल को संसद में चर्चा के लिए लाया गया तब इसके खिलाफ देशभर में प्रदर्शन शुरू हो गये। इस बिल की तुलना रौलेट एक्ट से की गई। इसे एटम बम की संज्ञा दी गई। बेटियों और बहुओं को सम्पत्ति का अधिकार देने से विस्फोट हो जायेगा। यह बिल विवाह संस्था की पवित्रता को खत्म कर देगा। यह भी कहा गया कि हिन्दुओं के लिए बिल क्यों? बहुपत्नी प्रथा तो अन्य समुदायों में भी है। ऐसे कुतर्क सामने आए कि अगर पुरुषों को बहुविवाह नहीं करने दिया जायेगा तो वे धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन जायेंगे और हिन्दू धर्म खतरे में पड़ जायेगा। ऐसे कार्टून आए जिसमें पुरुषों को रस्सी से बांधा गया था और महिलाओं के हाथों में तलवार दिखाई दे रही थी। अम्बेडकर की जाति पर तंज कसा गया। यह कहा गया कि अम्बेडकर इस कानून को इसलिए पारित कराना चाहते थे ताकि एक ब्राह्मण नर्स के साथ विवाह को वैधता प्रदान कर सकें। अम्बेडकर ने अप्रैल 1948 में ही डॉ़ शारदा कबीर से विवाह किया था। एकमात्र ऑल इण्डिया वूमैन्स कॉन्फ्रेंस ही इस बिल के समर्थन में सामने आई।

हालांकि नेहरू इस बिल को पास कराना चाहते थे लेकिन तमाम विरोधों  और पहला आम चुनाव नजदीक होने की वजह से टाल गए। दूसरी ओर अम्बेडकर इसे पास कराने के लिए बहुत चिंतित थे। उनका कहना था कि मेरी भारतीय संविधान को बनाने से अधिक दिलचस्पी इस बिल को पास कराने में है। उनका कहना था कि इस समय भारतीय समाज में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है और कांग्रेस इस बात से ही पीछे हट रही है। यह बिल उस समय पास नहीं हो सका। अत: अम्बेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।
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1952 का पहला चुनाव निर्णायक सिद्घ हुआ। इस चुनाव के बाद हालात बदल गए। कांग्रेस भारी बहुमत से जीतकर आई। नेहरू ने ऐसे व्यक्ति को हराया जो बिल के घोर विरोधी थे, श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी। नेहरू भारी अंतर से जीते। कांग्रेस के भारी बहुमत से जीतकर आने से बिल पास करवाना आसान हो गया। नेहरू के प्रयासों से संसद में बिल पास तो हो गया लेकिन चार अलग-अलग कानूनों में बंटकर। 1953 में हिंदू मैरिज एक्ट बनाया गया जिसके तहत तलाक को कानूनी मान्यता दी गई। अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार दिया गया। एक बार में एक से अधिक विवाह को गैर कानूनी घोषित किया गया। 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम तथा हिंदू अवयस्कता और संरक्षता अधिनियम लागू हुए। हिंदू दत्तक अधिनियम के अनुसार जब कोई पति या पत्नी किसी दत्तक को ग्रहण करते हैं तो वह दत्तक पुत्र/पुत्री उनकी संपत्ति में उसी प्रकार वारिस होते हैं जैसे कोख से जन्म लेने वाली संतान। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के द्वारा सिर्फ अविवाहित, परित्यक्ता तथा विधवा पुत्री को ही पिता की संपत्ति में अधिकार दिया गया। इसमें 2005 में ही परिवर्तन संभव हो सका। सितंबर 2005 में इसमें बड़ा परिवर्तन हुआ जिसमें 1956 के अधिनियम की धारा 6 में संशोधन करते हुए जन्म से ही पुत्र के समान पुत्री को भी पैतृक संपत्ति में समान अधिकार दिया गया। लेकिन इसमें यह स्पष्ट नहीं था कि 2005 से पहले क्या स्थिति होगी? दरअसल सितंबर 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा कि यदि लड़कियों के पिता की मृत्यु इस तिथि से पहले हुई हो तो वह संपत्ति की अधिकारी नहीं होंगी। अब अगस्त 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने पहले के फैसले को रद्द करते हुए कहा है कि लड़कियों को हर हाल में पैतृक सम्पत्ति में बराबरी का हक मिलना चाहिए। यह हक 1956 से ही मिलेगा।

महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलवाने में इस बिल की एक लम्बी यात्रा रही है। इसमें नेहरू और अम्बेडकर का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। नेहरू ने अम्बेडकर की मृत्यु पर श्रद्घांजलि अर्पित करते हुए कहा था ”….हिंदू समाज में व्याप्त शोषण को दूर करने के लिए तो है ही, अम्बेडकर इस बात के लिए अधिक याद किए जायेंगे कि उन्होंने हिंदू सुधार कानून बनाने का जिम्मा लिया।” समाज आज भी वही है लेकिन इन कानूनों ने महिलाओं को यह ताकत दी है कि वे अपने जीवन की महत्ता स्थापित करने की लड़ाई लड़ सकें।
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